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जिनधर्म-विवेचन
४. किसी को शत्रु अथवा मित्र मानने की भावना अनुचित है - ऐसा ज्ञान होने से मनुष्य को समाधान मिलता है, इष्टानिष्ट बुद्धि निकल जाती है।
५. इष्टानिष्ट बुद्धि निकल जाने से जीव, ज्ञाता दृष्टा बनने में समर्थ होता है, उसे धर्म प्रगट करने के मार्ग का सम्यग्ज्ञान होता है। ६. हेय (छोड़ने योग्य) और उपादेय ( ग्रहण करने योग्य ) का यथार्थ ज्ञान होता है। हेयोपादेय का ज्ञान करना यही शास्त्र- स्वाध्याय का फल है।
७. क्रमबद्धपर्याय का सच्चा निर्णय होता है।
८. धौव्यदृष्टि हो जाती है अर्थात् 'मैं भगवान आत्मा ही हूँ - ऐसा श्रद्धान करने का पुरुषार्थ जागृत होता है।
जीवद्रव्य का सामान्य स्वरूप
५९. प्रश्न जीव किसे कहते हैं?
उत्तर - जिसमें चेतना अर्थात् ज्ञान-दर्शनरूप शक्ति है, उसे जीवद्रव्य कहते हैं?
६०. प्रश्न जीव के कितने भेद-प्रभेद हैं?
उत्तर - भिन्न-भिन्न अपेक्षाओं से जीव के अनेक भेद / प्रकार हैं१. संसारी और मुक्त ऐसे दो भेद हैं।
२. बहिरात्मा, अन्तरात्मा एवं परमात्मा ऐसे तीन भेद हैं। ३. गतियों की अपेक्षा - नारकी, तिर्यंच, मनुष्य और देव - ऐसे चार भेद हैं।
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४. इन्द्रियों की अपेक्षा - एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रिइन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय एवं पंचेन्द्रिय - ऐसे पाँच भेद हैं।
५. षट्काय की अपेक्षा - एक त्रस एवं पृथ्वीकायिक आदि पाँच - ऐसे छह भेद हैं।
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जीवद्रव्य-विवेचन
६. एकेन्द्रिय के दो भेद - बादर और सूक्ष्म, विकलत्रय के तीन भेद - द्वीन्द्रिय, त्रिइन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय के दो भेद - संज्ञी, असंज्ञी - ऐसे सात भेद हैं। इन सात के ही पर्याप्त अपर्याप्त की अपेक्षा चौदह भेद होते हैं।
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अन्य-अन्य अपेक्षाओं से १८, १९, ५७, ९८ आदि भेद भी होते हैं। जिज्ञासु पाठकगण गोम्मटसार जीवकाण्ड का जीवसमास अधिकार देखें। ६१. प्रश्न - जीव को भेद-प्रभेदों के साथ जानने से हमें क्या लाभ है?
उत्तर - १. जीव के सम्बन्ध में हमारे अज्ञान का व्यय ( नाश) होता है और ज्ञान का उत्पाद (नवीन अवस्था) होता है। इसप्रकार अज्ञान का नाश और ज्ञान की प्राप्ति - यह प्रथम लाभ है।
२. जीव के सूक्ष्म - बादर आदि भेदों का ज्ञान होने से जीवदया की प्रेरणा मिलती है। कहा भी है ह्र
जीव जाति जाने बिना, दया कहाँ से होय ।
३. जीव का चारों गति में दु:खदायी भ्रमण जानने से मनुष्य पर्याय की दुर्लभता समझ में आती है और स्वयमेव वैराग्यभाव जागृत होता है।
४. जीव के भेद-प्रभेदों को जानने से जीवादि के सर्व द्रव्य-गुणपर्यायों को जाननेवाले केवली भगवान के सूक्ष्म व विशाल ज्ञान का बोध होता है एवं सर्वज्ञता के प्रति श्रद्धा अत्यन्त दृढ़ होती है।
५. जीव को जानने से स्वयमेव ही 'मैं एक स्वतन्त्र जीवद्रव्य हूँ। अन्य जीव एवं पुद्गलादि द्रव्यों से मेरा कुछ भी सम्बन्ध नहीं हैं' ह्र ऐसा भेदज्ञान होता है।
६. जीव को पुद्गल से भिन्न जानते ही तत्त्व का सार समझ में आता है। इस सम्बन्ध में आचार्य पूज्यपाद इष्टोपदेश ग्रन्थ में कहते हैं ह्र जीव जुदा पुद्गल जुदा, यही तत्त्व का सार । ७. ज्ञान एवं आनन्द की निरन्तर वृद्धि होती है।