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द्रव्य-विवेचन
जिनधर्म-विवेचन अर्थात् व्यवहार काल जो समयरूप है, वह पुद्गलद्रव्य से अनन्त गुना जानना । उन तीन - (काल भूत, भविष्य, वर्तन) के समयों से अनन्तगुने आकाश के सर्व प्रदेशों की संख्या जाननी (तथा आकाश के प्रदेशों की संख्या (अनन्त) से भी अनन्तगुने एक द्रव्य में गुण होते रहते हैं।)'
५३. प्रश्न - द्रव्य का कर्ता कौन है? अर्थात् द्रव्य को किसने उत्पन्न किया? या बनाया है?
उत्तर - वास्तविकरूप से विचार किया जाए तो 'छह द्रव्यों के समूह को विश्व कहते हैं' - इस परिभाषा के माध्यम से 'द्रव्य भी स्वयम्भू है' - यह हमें समझ में आ जाना चाहिए।
जिसतरह विश्व अनादि-अनन्त एवं स्वयम्भू है, उसीतरह प्रत्येक द्रव्य (छहों द्रव्य) भी अनादि-अनन्त एवं स्वयम्भू ही हैं। किसी भी द्रव्य का कोई कर्ता अर्थात् उत्पादक नहीं है।
जिसतरह विश्व एवं द्रव्य, अनादि-अनन्त तथा स्वयम्भू हैं, उसीतरह प्रत्येक द्रव्य में रहनेवाले अनन्त गुण भी अनादि-अनन्त एवं स्वयम्भूही हैं।
पंचाध्यायी ग्रन्थ के प्रथम अध्याय के ८वें श्लोक में यह विषय स्पष्ट रूप से आया है, उसे हम आगे दे रहे हैं -
'द्रव्यं सल्लाक्षणिक, सन्मात्रं वा यतः स्वतःसिद्धम्।
तस्मादनादिनिधनं, स्वसहायं निर्विकल्पं च ॥ अर्थात् द्रव्य का लक्षण सत् है या सन्मात्र ही द्रव्य है तथा जिस कारण से वह स्वतःसिद्ध है; उसी कारण वह विनाशरहित है, अनादि है, अनिधन है, स्वसहाय है और निर्विकल्प अर्थात् अखण्ड है।'
इस श्लोक में द्रव्य के जो अनेक प्रकार के लक्षण बताये हैं, उनसे यह अत्यन्त स्पष्ट है कि द्रव्यों का कोई भी कर्ता-धर्ता-हर्ता नहीं है अर्थात् कोई ईश्वर, द्रव्य को बनाने वाला/उत्पादक नहीं है।
५४. प्रश्न - द्रव्य में गुणों को किसने एकत्रित किया? उत्तर - द्रव्य में गुणों को किसी ने भी एकत्रित नहीं किया है। द्रव्य
स्वयमेव ही अनादिकाल से अनन्त गुणमय है और अनन्त काल तक अनन्त गुणमय ही रहेगा; अतः द्रव्य भी विश्व के समान स्वयम्भू अर्थात् स्वयंसिद्ध एवं स्वतन्त्र है। द्रव्य में गुणों को कहीं से लाकर इकट्ठा नहीं किया है। अनन्तगुण अपने आप ही अनादि से एकत्रित हैं अर्थात् वे एक ही वस्तु में हैं और उसी वस्तु की द्रव्य संज्ञा है।
५५. प्रश्न - द्रव्य को जानने से हमें क्या लाभ है?
उत्तर - १. द्रव्य के सम्बन्ध में अनादि से चलता आया हुआ पुराना अज्ञान नष्ट होता है और द्रव्य सम्बन्धी यथार्थ ज्ञान प्रगट होता है। - यह प्रथम लाभ है।
२. विश्व के कारण का पता चलता है अर्थात् द्रव्यों से ही विश्व बना हुआ है - ऐसा स्पष्ट ज्ञान होता है।
३. विश्व में सर्वत्र ही जीवादि द्रव्य ही द्रव्य हैं। एक प्रदेशमात्र भी स्थान द्रव्यों से रहित नहीं है; इसतरह विश्व, द्रव्यों से लबालब भरा हुआ है; इसका पता चलता है।
४. द्रव्य का अभाव माना जाए तो विश्व का अभाव होगा, इस आपत्ति का भान होता है। इस कारण द्रव्य का सर्वत्र अस्तित्व मानना अनिवार्य है।
५. अपना ज्ञान, केवलज्ञानी अथवा सम्यग्ज्ञानी के ज्ञान के समान यथार्थ/सम्यक् हो जाता है; क्योंकि सर्वज्ञ भगवान और ज्ञानी लोग, द्रव्य का अस्तित्व मानते हैं और मैंने भी द्रव्य का अस्तित्व मान लिया है।
६. सर्वज्ञ के द्वारा कथित द्रव्य का स्वरूप जानने से रागी-द्वेषी एवं असर्वज्ञ के द्वारा कथित द्रव्य के कथन की उपेक्षा हो जाती है।
७. प्रत्येक द्रव्य, अनन्त गुणात्मक पूर्ण वस्तु है, शून्य नहीं; अतः प्रत्येक द्रव्य की पूर्णता और परद्रव्यों से निरपेक्षता का ज्ञान होता है।
८. प्रत्येक द्रव्य, विश्व के समान स्वयम्भू एवं स्वतन्त्र है; अतः
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