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जिनधर्म-विवेचन
द्रव्य-विवेचन
इन गाथाओं और इनकी टीकाओं को पढ़ना चाहिए। इन गाथाओं के अध्ययन से वस्तु-व्यवस्था का ज्ञान अत्यन्त स्पष्ट/निर्मल होता है। ___ पण्डित श्री राजमलजी ने भी पंचाध्यायी ग्रन्थ के प्रथम अध्याय में द्रव्य के सम्बन्ध में विशेष स्पष्टता के साथ कथन किया है, उसका भी अध्ययन द्रव्य के स्वरूप को समझने के लिए बहुत उपयोगी है।
उक्त दोनों ग्रन्थों का द्रव्य सम्बन्धी सम्पूर्ण विषय यहाँ देना सम्भव नहीं है और उचित भी नहीं है; इसलिए पाठकों के जानकारी के लिए उनका मात्र उल्लेख किया है। शास्त्राभ्यासी पाठकों से निवेदन है कि वे मूलतः उनका अध्ययन करें।
अन्य अनेक प्राचीन आचार्यों तथा विद्वानों द्वारा प्राकृत एवं संस्कृत भाषा में लिखित द्रव्य विषयक कथन, अनेक ग्रन्थों में अनेक स्थान पर मिलते हैं। पंचाध्यायी ग्रन्थ की प्रस्तावना में पण्डित फूलचन्दजी सिद्धान्त शास्त्री ने द्रव्य की अनेक परिभाषाओं का सन्दर्भ देते हुए एवं अन्य अनेक दर्शनों के साथ उसकी तुलना करते हुए अच्छा खुलासा किया है। उस प्रस्तावना का कुछ विशिष्ट भाग हम पाठकों के लाभार्थ यहाँ दे रहे हैं - द्रव्य का सामान्य स्वरूप
"विश्व, जड़-चेतन दो प्रकार के तत्त्वों (द्रव्यों/पदार्थों) का समुदाय है। वेदान्त दर्शन के सिवाय शेष सब दर्शनों ने इनकी स्वतन्त्र सत्ता स्वीकार की है। यहाँ हम उन सब दर्शनों की स्वतन्त्र चर्चा नहीं करेंगे। यहाँ हमें मात्र जैनदर्शन के अनुसार विश्व का विचार करना है और देखना है कि चेतन-जगत् का जड़-जगत् के साथ क्या सम्बन्ध है।
जैनदर्शन, जगत् में मूलभूत छह पदार्थों (द्रव्यों) की स्वीकृति देता है। उनके नाम हैं - जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल । ये छहों 'द्रव्य' शब्द के द्वारा पुकारे जाते हैं।
इस द्रव्य शब्द में दो अर्थ छिपे हुए हैं- १. द्रवणशीलता २. स्थायित्व।
जगत् का प्रत्येक पदार्थ परिणमनशील (उत्पाद-व्ययशील) होकर भी ध्रुव है, इसलिए उसे 'द्रव्य' कहते हैं - यह उक्त कथन का तात्पर्य है।
साधारणतः जैनदर्शन के सिवाय अन्य दर्शनों में द्रव्य के विषय में
अनेक मत मिलते हैं - १. पहला मत - जगत् में जो कुछ है, वह एक है, सद्रूप है और नित्य है।
यह मत मात्र एक चेतन तत्त्व की प्रतिष्ठा करता है और विश्व की
विविधता को माया का परिणाम बतलाता है। २. दूसरा मत - जगत् में जो कुछ है, वह नाना (अनेक) है और
विशरणशील (उत्पाद-व्ययशील) है।। ३. तीसरा मत - सत् को तो मानता ही है, पर इसके सिवा सत् से भिन्न
असत् को भी मानता है। वह सत् में भी परमाणु, द्रव्य, काल, आत्मा आदि को नित्य और कार्य द्रव्य घट-पट आदि को अनित्य
मानता है। ४. चौथा मत - सत् के चेतन और अचेतन दो भेद करता है; उसमें चेतन
को नित्य और अचेतन को परिणामी नित्य मानता है। ५. पाँचवाँ मत - एक मत ऐसा भी है जो जगत् की सत्ता को ही वास्तविक
नहीं मानता है।
किन्तु जैनदर्शन में द्रव्य की परिभाषा भिन्न प्रकार से की गई है। उसमें किसी भी पदार्थ को न तो सर्वथा नित्य ही माना गया है और न सर्वथा अनित्य ही। कारण द्रव्य सर्वथा नित्य है और कार्य द्रव्य सर्वथा अनित्य है, यह भी उसका मत नहीं है: किन्तु उसके मत से -
जड़-चेतन समय सद्रूप पदार्थ, उत्पाद-व्यय और धौव्य स्वभावी हैं। १. अपनी जाति का त्याग किये बिना नवीन पर्याय की प्राप्ति उत्पाद है। २. पूर्व पर्याय का त्याग व्यय है। ३. अनादि पारिणामिक स्वभावरूप अन्वय का बना रहना धौव्य है।
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