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जिनधर्म-विवेचन
यह वस्तु-स्वरूप का नियम है कि जो वस्तु अनादि-अनन्त होती है, वह स्वतःसिद्ध भी होती है । स्वतः सिद्ध वस्तु का कोई कर्ता या उत्पादक नहीं होता। यदि स्वतः सिद्ध वस्तु का भी किसी को कर्ता माना जाए तो वह वस्तु अनादि निधन नहीं रहती ।
यदि किसी एक द्रव्य को किसी एक अन्य द्रव्य का भी उत्पादक / बनानेवाला माना जाए तो सम्पूर्ण विश्व का भी वही कर्ता / उत्पादक हो जाएगा; फिर विश्व भी अनादि-अनन्त, स्वतः सिद्ध व स्वतन्त्र नहीं रहेगा । यदि हम विश्व को स्वयंसिद्ध मानें और द्रव्य को स्वयंसिद्ध न मानकर किसी द्वारा बनाया हुआ मानेंगे तो हमारे कथन में परस्पर विरोध उत्पन्न हो जाएगा। जहाँ कथन में परस्पर विरोध हो तो वहाँ जिनेन्द्रकथित शास्त्र की कसौटी नष्ट हो जाएगी; अतः जब विश्व स्वयम्भू है तो जिनके समूह से विश्व बना है, वे सभी द्रव्य भी स्वयम्भू और स्वतन्त्र ही हैं।
३५. प्रश्न जैन सिद्धान्त प्रवेशिका में कथित द्रव्य की परिभाषा का समर्थन करनेवाली आगमोक्त अन्य परिभाषाएँ कौन-कौनसी हैं ? उत्तर - अनेक प्राचीन ग्रन्थों में जो परिभाषाएँ आई हैं; तत्त्वार्थसूत्र ग्रन्थ के पाँचवें अध्याय में द्रव्य का सामान्य लक्षण बताया है -
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'सद् द्रव्यलक्षणम् ||२९|| अर्थात् द्रव्य का लक्षण सत् है ।' यदि ऐसा है तो सत् क्या है? - इसे बताने के लिए अगला सूत्र कहते हैं - 'उत्पादव्ययधौव्ययुक्तं सत् ॥ ३० ॥
अर्थात् जो उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य इन तीनों से समन्वित होता है, वह सत् है । '
इसीप्रकार अन्य प्रकार से द्रव्य का लक्षण बताने के लिए इसी अध्याय में एक और सूत्र कहते हैं- 'गुणपर्ययवद् द्रव्यम् ॥३८॥
अर्थात् जो गुण और पर्यायवाला है, वह द्रव्य है।' तात्पर्य यह है कि जिसमें गुण और पर्याय, दोनों एक साथ रहते हैं, वह गुण-पर्यायवाला कहलाता है और वही द्रव्य है।
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द्रव्य - विवेचन
३६. प्रश्न - द्रव्य में गुणों की संख्या कितनी है ? उत्तर- द्रव्य में गुणों की संख्या अनन्त है।
३७. प्रश्न - गुणों की अनन्तता का क्या स्वरूप है ? उत्तर - इस विश्व में जीव अनन्त हैं, उनसे अनन्तगुने पुद्गलद्रव्य हैं, उनसे अनन्तगुने तीन काल के समय हैं, उनसे अनन्तगुने आकाश प्रदेश हैं और उनसे भी अनन्तगुने एक द्रव्य में गुण हैं।
पृथ्वीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक और प्रत्येक वनस्पति - ये पाँचों स्थावर जीव, द्वि-इन्द्रिय से लेकर असंज्ञी - संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंच पर्यन्त के सर्व त्रस जीव, नारकी जीव, देव जीव और संख्यात मनुष्य जीव- ये सब मिलकर भी जीवों की संख्या मात्र असंख्यात ही होती है । साधारण वनस्पति अर्थात् निगोदिया जीवों को मिला देने पर ही जीवों की संख्या अनन्त होती है।
इन अनन्त जीवों से अनन्तगुने पुद्गलद्रव्य हैं। एक छोटी-सी पुस्तिका भी अथवा कागज के एक छोटा टुकड़ा भी अनन्त पुद्गल परमाणुओं से बना होता है तो विश्व में विद्यमान सर्व पुद्गल, जीव के अनन्त परिमाण से अनन्तगुना होना स्वाभाविक है।
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काल तीन भेदवाला है - भूतकाल, भविष्यकाल और वर्तमानकाल । वर्तमानकाल मात्र एक समय का है। भूतकाल अनन्त समयों का है। भविष्यकाल, भूतकाल से हमेशा अनन्तगुना होता है। काल के सम्बन्ध में यह कथन त्रैकालिक है।
३८. प्रश्न समय किसे कहते हैं?
उत्तर - काल के सबसे छोटे अंश को समय कहते हैं।
उमास्वामी आचार्य ने तत्त्वार्थसूत्र के पाँचवें अध्याय के दो सूत्रों में कहा है- 'कालश्च ।। ३१ ।। सोऽनन्तसमयः ॥ ४० ॥
अर्थात् जीवादि द्रव्यों के समान काल भी एक द्रव्य है और वह अनन्त समयवाला है।'