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जिनधर्म-विवेचन
शुद्धोपयोगरूप ध्यानाग्नि के ताप से किसी आत्मा के दोषावरण की सम्पूर्ण हानि होकर वीतरागता और सर्वज्ञता प्रगट होना सम्भव है। सूक्ष्मान्तरितदूरार्थाः प्रत्यक्षाः कस्यचिद्यथा । अनुमेयत्वतोऽग्न्यादि रिति सर्वज्ञसंस्थितिः ॥ ५ ॥
अर्थात् हे भगवन्! परमाणु आदि सूक्ष्म, राम-रावण आदि अन्तर एवं मेरु आदि दूरवर्ती पदार्थ किसी के प्रत्यक्ष हैं; क्योंकि वे अनुमान से जाने जाते हैं। जो-जो अनुमान से जाने जाते हैं, वे वे किसी के प्रत्यक्ष भी होते हैं। जैसे, दूरस्थ अग्नि का हम धूम देखकर अनुमान कर लेते हैं. तो कोई उसे प्रत्यक्ष भी जान सकता है, जानता ही है; उसीप्रकार सूक्ष्म, अन्तरित और दूरवर्ती पदार्थों को हम अनुमान से जानते हैं तो कोई उन्हें प्रत्यक्ष भी जान सकता है, जानता ही है। इसप्रकार सामान्य से सर्वज्ञ की सत्ता सिद्ध होती है।
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स त्वमेवासि निर्दोषो, युक्तिशास्त्राऽविरोधिवाक् । अविरोधो यदिष्टं ते, प्रसिद्धेन न बाध्यते ॥ ६ ॥
अर्थात् हे भगवन्! उक्त वीतरागी और सर्वज्ञ आप ही हो; क्योंकि आपकी वाणी, युक्ति और शास्त्रों से अविरोधी है। जो कुछ भी आपने कहा है, वह प्रत्यक्षादि प्रसिद्ध प्रमाणों से बाधित नहीं होता है; अतः आपकी वाणी अविरोधी कही गई है।
जिज्ञासुओं को उक्त ग्रन्थ का पूर्ण अध्ययन करना चाहिए ।
इसी तरह आचार्य विद्यानन्दि ने करीब ८०० वर्ष पूर्व इस भारतभूमि को पवित्र किया था। उन्होंने भी आप्तपरीक्षा नामक परीक्षाप्रधानी एक ग्रन्थ लिखा है, उसमें भी सच्चे देव की ही परीक्षा की है।
धर्म के आधार स्तम्भ स्वरूप देव शास्त्र-गुरु की परीक्षा करके ही उनका स्वीकार करना चाहिए यह जिनधर्म की रीति है। (२) भगवान के प्रति सच्ची भक्ति प्रगट होती है।
समाज में यह अक्सर देखा जाता है कि भगवान हमारा बुरा न करे
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विश्व - विवेचन
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और अच्छा करे; इसी भावना से भय एवं लोभवश भगवान की भक्ति की जाती है, जो किसी भी प्रकार से योग्य नहीं है ।
जैसे, दो मित्रों या रिश्तेदारों में परस्पर अपनेपन का व्यवहार हो । दो में से कोई एक धनवान और दूसरा निर्धन हो । साधारणतया निर्धन व्यक्ति, धनवान से अत्यन्त विनयसहित व्यवहार करता है, उसके मन में धनवान से किसी विशेष प्रसंग पर विशेष धन प्राप्त होने की तीव्र अभिलाषा बनी रहती है। कभी-कभी धनवान मित्र को इस निर्धन व्यक्ति के मानस का कुछ पता भी नहीं होता; लेकिन निर्धन मनुष्य, धनवान के साथ विशिष्ट आर्थिक लाभ की अपेक्षा से ही सब व्यवहार करता है।
अब हम इस प्रसंग में यह सोचते हैं कि निर्धन व्यक्ति के व्यवहार के पीछे मात्र धनलाभ का ही कैसे अभिप्राय बना रहता है? वह धनवान को नमस्कार करेगा तो भी धनलाभ की अपेक्षा । कुछ शारीरिक कष्ट सहन करके भी धनवान का काम करेगा तो भी धनलाभ का भाव। जब-जब निर्धन मनुष्य, धनवान को देखेगा, जानेगा, उससे बोलेगा, उसका साथ करेगा; उस प्रत्येक समय में निर्धन के मन में धनप्राप्ति की ही अभिलाषा का भाव धारावाही रूप से बना रहता है।
उसी तरह जो मनुष्य, ईश्वर को जगत् का तथा अन्य जीवों के अच्छे-बुरे का कर्ता मानेगा तो उसके मन में ईश्वर के माध्यम से अपना लौकिक कार्य सिद्ध करवाने का भाव रहेगा ही, अक्सर रहता ही है।
वह भगवान को नमस्कार करता है तो भी वास्तविक में वह धन को अर्थात् अपने स्वार्थ / मतबल को ही नमस्कार करता है। ऐसी अवस्था में वह भगवान की भक्ति करते समय भी भगवान की भक्ति कहाँ कर रहा है? वह तो अपने स्वार्थ / मतलब से ही जुड़ा हुआ है, यह विषय अत्यन्त स्पष्ट है।
शास्त्र में 'गुणेषु अनुरागः भक्तिः' - ऐसी भक्ति की परिभाषा मिलती है, परन्तु अज्ञानी को न गुणों का पता है और न गुणों के अनुराग की सुध