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जिनधर्म-विवेचन
और अनादि अनन्त हैं। एक जीव, किसी दूसरे जीव के साथ पिण्डरूप नहीं हो सकता; परन्तु स्पर्श गुण के कारण रजकण पिण्डरूप होते हैं।'
जीव-पुद्गलद्रव्य के समान आकाश और कालद्रव्य भी सिद्ध किया जा सकता है -
१. अनेक रजकणों के एकमेकरूप होने पर उनमें से नया जीव उत्पन्न होता है यह मान्यता असत्य है; क्योंकि रजकण सदा ज्ञान रहित जड़ हैं। इसीलिये ज्ञान रहित कितने भी पदार्थों का संयोग हो तो भी जीव उत्पन्न नहीं होता। जैसे अनेक अंधकारों के एकत्रित करने पर उनमें से प्रकाश नहीं होता, उसी तरह अजीव में से जीव की उत्पत्ति नहीं होती।
२. ऐसी मान्यता असत्य है कि जीव का स्वरूप क्या है वह अपने को मालूम नहीं होता; क्योंकि ज्ञान क्या नहीं जानता? ज्ञान की रुचि बढ़ाने पर आत्मा का स्वरूप बराबर जाना जा सकता है। इसलिये यह विचार से गम्य ((Reasoning- दलीलगम्य) है, ऐसा ऊपर सिद्ध किया है।
३. कोई ऐसा मानते हैं कि जीव और शरीर ईश्वर ने बनाये, किन्तु यह मान्यता असत्य है; क्योंकि दोनों पदार्थ अनादि-अनन्त हैं। अनादिअनन्त पदार्थों का कोई कर्ता हो ही नहीं सकता।' ___ आकाशद्रव्य : लोग अव्यक्तरूप से यह तो स्वीकार करते हैं कि 'आकाश' नाम का एक द्रव्य है। मकान आदि के दस्तावेजों में ऐसा लिखते हैं कि 'अमुक मकान इत्यादि स्थान का आकाश से पातालपर्यन्त हमारा हक है'; इससे यह निश्चय होता है कि आकाश से पातालरूप कोई एक वस्तु है। यदि आकाश से पातालपर्यन्त कोई वस्तु ही न हो तो ऐसा क्यों लिखा जाता है कि आकाश से पाताल तक हमारा हक (दावा) है; वस्तु है, इसलिए उसका हक माना जाता है। आकाश से पाताल तक
विश्व-विवेचन अर्थात् सर्वव्यापी वस्तु को 'आकाशद्रव्य' कहा जाता है। यह द्रव्य ज्ञानरहित और अरूपी है, उसमें रंग, रस वगैरह नहीं है।
कालद्रव्य : अब, यह सिद्ध किया जाता है कि 'काल' नाम की भी एक वस्तु है। लोग दस्तावेज कराते हैं और उसमें लिखाते हैं कि 'यावत् चन्द्रदिवाकरौं' जब तक सूर्य और चन्द्र रहेंगे, तब तक इस पर हमारा हक है। इसमें भी कालद्रव्य को स्वीकार किया गया है। वर्तमान में ही हमारा हक है' - ऐसा नहीं, किन्तु भविष्यकाल में भी हमारा हक रहेगा; इसप्रकार वर्तमान एवं भविष्यकाल को स्वीकार करता है। हमारा वैभव भविष्य में ऐसा ही बना रहें' - इस भावना में भी भविष्यकाल को स्वीकार किया गया है। हम ऐसा भी कहते हैं कि 'हम तो सात पीढ़ी से सुखी हैं, वहाँ भूतकाल भी स्वीकार करता है। ___भूतकाल, वर्तमानकाल और भविष्यकाल - ये समस्त भेद निश्चय 'कालद्रव्य' की व्यवहार ‘पर्याय' हैं। यह कालद्रव्य भी अरूपी है और उसमें ज्ञान नहीं है।
इस तरह जीव, पुद्गल, आकाश और कालद्रव्य की सिद्धि हुई। अब धर्म और अधर्म - इन दो द्रव्यों की सिद्धि करते हैं।
धर्मद्रव्य : धर्मद्रव्य को भी हम अव्यक्तरूप से स्वीकार करते हैं; क्योंकि छह द्रव्यों के अस्तित्व को स्वीकार किये बिना कोई भी व्यवहार नहीं चल सकता। आना, जाना, रहना इत्यादि कार्यों से छहों द्रव्यों का अस्तित्व सिद्ध हो जाता है। चार द्रव्य तो पहले ही सिद्ध हो चुके हैं। अब बाकी के दो द्रव्य सिद्ध करना हैं। यह कहने से धर्मद्रव्य सिद्ध हो जाता है कि 'वह एक ग्राम से दूसरे ग्राम को जाता है।' इसका अर्थ है कि जीव
और शरीर के परमाणुओं में गति होती है। एक क्षेत्र से दूसरा क्षेत्र बदलता है। इस क्षेत्र बदलने के कार्य में किस द्रव्य को निमित्त कहेंगे? क्योंकि ऐसा नियम है कि प्रत्येक कार्य में उपादान और निमित्तकारण होते ही हैं।
१. मोक्षशास्त्र, अध्याय-५, उपसंहार, पृष्ठ ३७८-३८१ २. वही अध्याय-५, उपसंहार, पृष्ठ ३८७-३८९
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