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________________ प्रकरण तीसरा विद्यमान और अविद्यमान पर्यायें तात्कालिक (वर्तमान ) पर्यायों की भाँति विशिष्टतापूर्वक (अपने-अपने भिन्न-भिन्न स्वरूप से) ज्ञान में वर्तती हैं। इस गाथा की श्री अमृतचन्द्राचार्य कृत संस्कृत टीका में कहा है कि - '(जीवादि) समस्त द्रव्य जातियों की पर्यायों की उत्पत्ति की मर्यादा तीनों काल की मर्यादा जितनी होने से (अर्थात् वे तीनों काल में उत्पन्न हुआ करती हैं, इसलिए) उनकी (उन समस्त द्रव्य जातियों की), क्रमपूर्वक तपती हुई स्वरूप सम्पदावान, (एक के बाद एक प्रगट होनेवाली), विद्यमानपने और अविद्यमानपने को प्राप्त होनेवाली (भूतकाल तथा भविष्य काल की) जो जितनी पर्यायें हैं, वे सभी तात्कालिक (वर्तमान कालीन ) पर्यायों की भाँति, अत्यन्त मिश्रित होने पर भी, सर्व पर्यायों के विशिष्ट लक्षण स्पष्ट ज्ञात हो, इस प्रकार, एक क्षण में ही ज्ञान महल में स्थिति को प्राप्त होती हैं। इस गाथा की संस्कृत टीका में जयसेनाचार्य ने कहा है कि - '...ज्ञान में सर्व द्रव्यों की तीनों काल की पर्यायें एक साथ ज्ञात होने पर भी, प्रत्येक पर्याय का विशिष्ट स्वरूप, प्रदेश, काल, आकारादि विशेषताएँ स्पष्ट ज्ञात होती है; संकरव्यतिकर नहीं होते...' ___ 3. 'उनको (केवली भगवान को) समस्त द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव का अक्रमिक ग्रहण होने से समक्ष संवेदन की (प्रत्यक्ष ज्ञान की आलम्बनभूत समस्त द्रव्य-पर्यायें प्रत्यक्ष ही हैं।)' (श्री प्रवचनसार गाथा 21 की टीका)
SR No.009453
Book TitleJain Siddhant Prashnottara Mala Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year
Total Pages419
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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