SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 398
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 398 प्रकरण दसवाँ गुणस्थानवर्ती होते हैं। (अनादि मिथ्यादृष्टि को पाँच प्रकृतियों का उपशम होता है) प्रश्न 95 - देशविरत गुणस्थान का क्या स्वरूप है ? उत्तर - प्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माला, लोभ के उदय में युक्त होने से यद्यपि संयमभाव नहीं होता, तथापि चारित्रगुण की आंशिक शुद्धि होने से अप्रत्याख्यानवरण क्रोध, मान, माया, लोभ के अभावपूर्वक श्रावक का निश्चय देशचारित्र होता है; उसी को देशविरत नाम का पाँचवाँ गुणस्थान कहते हैं। पाँचवें आदि (उपरोक्त) सर्व गुणस्थानों में भी निश्चय सम्यग्दर्शन और उसका अविनाभावी सम्यग्ज्ञान अवश्य होोत है। उसके बिना पाँचवें, छठवें आदि गुणस्थान नहीं होते हैं। प्रश्न 96 - प्रमत्तविरत गुणस्थान का क्या स्वरूप है? उत्तर - संज्वलन और नो कषाय के तीव्र उदय में युक्त होने से संयमभाव तथा मलजनक प्रमाद - यह दोनों एक साथ होते हैं; (यद्यपि संज्वलन और नो कषाय का उदय चारित्रगुण के विरोध में निमित्त है, तथापि प्रत्याख्यानावरण कषाय का अभाव होने से प्रादुर्भूत सकल संयम है) इसलिए इस गुणस्थानवर्ती मुनि को प्रमत्तविरत अर्थात् चित्रलाचरणी कहते हैं। प्रश्न 97 - अप्रमत्तविरत गुणस्थान का क्या स्वरूप है ? उत्तर - जीव के पुरुषार्थ से संज्वलन और नो कषाय का मन्द उदय होता है, तब प्रमादरहित संयमभाव प्रगट होता है; इस कारण इस गुणस्थानवर्ती मुनि को अप्रमत्त विरत कहते हैं। प्रश्न 98 - अप्रमत्तविरत गुणस्थान के कितने भेद हैं ?
SR No.009453
Book TitleJain Siddhant Prashnottara Mala Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year
Total Pages419
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy