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श्री जैन सिद्धान्त प्रश्नोत्तरमाला
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चौथे गुणस्थान के लिए दर्शनमोहनीय कर्म के उपशम, क्षय अथवा क्षयोपशम का निमित्त है। इस गुणस्थान में आत्मा की निश्चय सम्यग्दर्शन पर्याय का प्रादुर्भाव हो जाता है।
तीसरे सम्यग्मिथ्यात्व (मिश्र) गुणस्थान के लिए दर्शनमोहनीय कर्म का उदय निमित्त है; इस गुणस्थान में आत्मा के परिणाम समग्मथ्यात्व अथव उदयरूप होते हैं। __पहले गुणस्थान में औदयिकभाव, चौथे गुणस्थान में औपशमिक, क्षायिक अथवा क्षायोपशमिकभाव, और तीसरे गुणस्थान में औदयिकभाव होते हैं; परन्तु दूसरा गुणस्थान दर्शनमोहनीय कर्म की उदय, उपशम, क्षय और क्षायोपशम; इन चार अवस्थाओं में से किसी भी अवस्था की अपेक्षा नहीं रखता; इसलिए यहाँ दर्शनमोहनीय कर्म की अपेक्षा से पारिणामिकभाव, किन्तु अनन्तानुबन्धीरूप चारित्रमोहनीय कर्म का उदय होने से इस गुणस्थान में चारित्रमोहनीय कर्म की अपेक्षा से औदयिकभाव भी कहा जा सकता है। इस गुणस्थान में अनन्तानुबन्धी के उदय से सम्यक्त्व का घात हो गया है, इसलिए यहाँ सम्यक्त्व नहीं है और मिथ्यात्व का भी उदय नहीं आया है, इसलिए मिथ्यात्व और सम्यक्त्व की अपेक्षा से अनुदयरूप है।
पाँचवें गुणस्थान से दसवें - देशविरत, प्रमत्तविरत, अप्रमत्तविरत, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण, सूक्ष्म साम्पराय गुणस्थान - इन छह गुणस्थानों के लिए चारित्रमोहनीय कर्म का क्षयोपशम निमित्त है; इसलिए इन गुणस्थानों में क्षायोपशमिकभाव होता है। इन गुणस्थानों में निश्चय सम्यक्चारित्र पर्याय की अनुक्रम से वृद्धि होती जाती है।