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प्रकरण छठवाँ
(8) निमित्त के बिना उपादान बलहीन है और निमित्त की सहायता के बिना कार्य नहीं होता - ऐसे दो प्रश्न उपस्थित करके पण्डित बनारसीदासजी ने स्व-रचित दोहों द्वारा स्पष्टीकरण करते हुए कहा है कि यह मान्यता यथार्थ नहीं है।
• जहाँ उपादान / निश्चय होता है, वहाँ निमित्त / व्यवहार होता ही है।
• जहाँ उपादान / निजगुण हो, वहाँ निमित्त / पर होता ही है।
• जहाँ देखो वहाँ उपादान का ही बल है, निमित्त का दाव कभी भी नहीं है।
• जहाँ प्रत्येक वस्तु असहाय, अर्थात् स्वतन्त्ररूप से सधती है / परिणमित होती है, वहाँ निमित्त कौन है ?*
प्रश्न 33 - निमित्त, उपादान को कुछ नहीं कर सकता, तो शरीर में सुई चुभ जाने से जीव को दुःख क्यों होता है ?
उत्तर - (1) जीव सदैव अरूपी होने से उसे सुई का स्पर्श नहीं हो सकता। एक आकाश क्षेत्र में सुई का संयोग हुआ, वह दुःख का कारण नहीं है, किन्तु अज्ञानी जीव को शरीर की अवस्था के साथ एकत्व-ममत्वबुद्धि होती है; इसलिए उसे जो दुःख होता है, वह शरीर में सुई चुभने के कारण नहीं, किन्तु उस प्रसङ्ग पर प्रतिकूलता की मिथ्या कल्पना से होता है।
(2) ज्ञानी को निचलीदशा में जो अल्प राग है, वह शरीर के साथ एकत्वबुद्धि का राग नहीं है; अपनी क्षणिक निर्बलता के * यह दोहे जिज्ञासुओं को अवश्य समझने योग्य हैं, जो इस ग्रन्थ के अन्त में
परिशिष्टरूप से दिये गये हैं।