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प्रकरण पहला
उत्तर - नित्य चैतन्यमय अनन्त गुणों का समूह ( श्रद्धा, ज्ञान, चारित्र, सुखादि गुणों का समाज), वह आत्मा का वास्तविक शरीर है; इसलिए आत्मा को 'ज्ञान- शरीरी' कहते हैं। संयोगरूप जो जड़ शरीर है, वह वास्तव में आत्मा का नहीं, किन्तु पुद्गल का है और इसलिए जड़ शरीर को पुद्गलास्तिकाय कहा है ।
प्रश्न 39 - आत्मा के अवयव होते हैं ? होते हैं तो कैसे ?
उत्तर - (1) प्रत्येक आत्मा के उसके ज्ञानादि अनन्त गुण हैं और प्रत्येक गुण परमार्थतः आत्मा का अवयव है। आत्मा उन अवयवोंवाला है, अवयवी है।
(2) क्षेत्र अपेक्षा से प्रत्येक आत्मा के अपने अखण्ड असंख्य प्रदेश हैं; उनमें से प्रत्येक प्रदेश आत्मा का अवयव है, किन्तु जड़ शरीर के हाथ, पैर आदि जीव के अवयव नहीं है; वे तो जड़ शरीर केही अवयव हैं।
प्रश्न 40 - इससे क्या सिद्धान्त समझें ?
उत्तर- (1) जीव सदैव अरूपी होने से उसके अवयव भी सदैव अरूपी ही हैं; इसलिए किसी भी काल में निश्चय से या व्यवहार से हाथ, पैर आदि को चलाना, स्थिर रखना आदि परद्रव्य की कोई भी अवस्था, जीव नहीं कर सकता - ऐसा निर्णय करना चाहिए । इस प्रकार पदार्थों की स्वतन्त्रता का निर्णय करे, तभी जीव पर से भेदविज्ञान करके ज्ञातास्वभाव की श्रद्धा कर सकता है। और ज्ञातारूप रह सकता है।
(2) शास्त्रों में आत्मा को व्यवहार से शरीरादि के कर्तृत्व का कथन आता है, उसका अर्थ- 'ऐसा नहीं है, किन्तु निमित्त की