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________________ सयोगकेवली गुणस्थान आचार्यश्री नेमिचन्द्र ने गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा ६३-६४ में सयोगकेवली गुणस्थान की परिभाषा निम्नानुसार दी है ह्र केवलणाण दिवायरकिरणकलावप्पणासियण्णाणो। णवकेवललद्धग्गम सुजणिय-परमप्पववएसो ।। असहायणाणदसणसहिओ, इदि केवली हु जोगेण| जुत्तोत्ति सजोगजिणो, अणाइणिहणारिसे उत्तो॥ घाति चतुष्क के क्षय के काल में औदयिक अज्ञान नाशक तथा असहाय केवलज्ञानादि नव लब्धिसहित होने पर परमात्म संज्ञा को प्राप्त जीव की योगसहित वीतराग दशा को सयोगकेवली गुणस्थान कहते हैं। ___ अन्य नाम - इसके अरिहंत, अरहंत, अरुहंत, केवली, परमात्मा, सयोगी जिन, सकलपरमात्मा, परंज्योति इत्यादि अनेक नाम हैं। सम्यक्त्व - केवल क्षायिक सम्यक्त्व । अन्य सम्यक्त्व का तो अभाव ही है। क्षायिकसम्यक्त्व को केवलज्ञान के निमित्त से परमावगाढ़ सम्यक्त्व कहते हैं। चारित्र - यथाख्यात चारित्र । अन्य चारित्र का तो अभाव ही है। काल - जघन्यकाल अंतर्मुहूर्त । उत्कृष्ट काल गर्भ काल सहित आठ वर्ष तथा आठ अंतर्मुहूर्त कम एक कोटि पूर्व तथा मध्यमकाल के सभी विकल्प संभव हैं। गमनागमन - यहाँ से चौदहवें गुणस्थान में ही गमन होता है। बारहवें गुणस्थान से ही यहाँ आगमन होता है। विशेषता - १. यहाँ केवलज्ञान संबंधित चारों ओर सुभिक्ष, आकाशगमन, कवलाहार का अभाव आदि अतिशय होते हैं। सयोगकेवली गुणस्थान २. मनुष्य सामान्यवत्, रोग आदि असाताजन्य बाधायें नहीं होती। ३. सयोग केवली जीव अनेक प्रकार के होते हैं। यथा-तीर्थंकर केवली, मूक केवली, अंतःकृत केवली, उपसर्ग केवली, सामान्य केवली, समुद्घात केवली आदि। तीर्थंकर केवली पाँच, तीन, दो, कल्याणक सहित भी होते हैं। तीर्थंकरों का विहार-काल जघन्य वर्ष पृथक्त्व तथा उत्कृष्ट काल योग-निरोध काल बिना आयु समाप्ति पर्यंत होता है। ४. इच्छा रहित उपदेश एक मात्र इसी गुणस्थानवर्ती तीर्थंकर आदि केवलियों के होता है। तदर्थ समवशरण, गंधकुटी आदि देवकृत विशिष्ट व्यवस्था यहाँ ही होती है। तिर्यंच-मनुष्य तथा देवगम्य दिव्यध्वनि २४ घंटे में ६-६ घड़ी पर्यंत, तीन या चार बार खिरती है। ५. यहाँ इन्द्रियादि पर निमित्त निरपेक्ष-निःसहाय (स्वतः परिपूर्ण समर्थ) त्रिकालवर्ती लोकालोक को युगपत् जानने-देखनेवाले केवलज्ञान, केवलदर्शन होते हैं। इन दोनों का भी परिणमन युगपत् होता है। ६. यहाँ से “परमात्मा” संज्ञा प्रारंभ होती है। ७. सम्यक्त्व के आज्ञा आदि दस भेदों में से यहाँ परमावगढ़ सम्यक्त्व होता है। क्षायिक सम्यक्त्व को ही केवलज्ञान के सद्भाव से परमावगाढ़ सम्यक्त्व कहते हैं। ८. यहाँ “सयोग" शब्द अन्त-दीपक है। यहाँ पर्यंत के सभी जीव योग सहित हैं। जैसे - सयोग मिथ्यात्व, सयोग सासादनसम्यक्त्व आदि। ९. "केवली" शब्द आदि-दीपक है। सर्वज्ञता यहाँ प्रगट होती है और सिद्धावस्था में अनंत काल तक रहती है। १०. सर्व घाति कर्मों का अभाव होने से इन्हें “जीवन मुक्त' भी कहते हैं।
SR No.009452
Book TitleGunsthan Praveshika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2014
Total Pages49
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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