________________
गुणस्थान-प्रवेशिका इसप्रकार जो ज्ञानाभ्यास के द्वारा उदासीनता होती है, वही कार्यकारी है। कोई जीव उन कर्मों को अपना जानता है और किसी कारण से कोई शुभ कर्मों से अनुरागरूप प्रवृत्ति करता है, कोई अशुभ कर्म को दुःख का कारण जानकर उदासीन होकर विषयादिक का त्यागी होता है।
इसप्रकार ज्ञान के बिना जो उदासीनता होती है, वह पुण्य-फल की दाता है, मोक्षकार्य को नहीं साधती है। इसलिये उदासीनता में भी ज्ञानाभ्यास ही प्रधान है। इसीप्रकार अन्य भी शुभ कार्यों में ज्ञानाभ्यास को ही प्रधान जानना । देखो ! महामुनियों के भी ध्यान और अध्ययन ह्र दो ही कार्य मुख्य हैं। इसलिये इस शास्त्र के अध्ययन द्वारा जीव तथा कर्म का स्वरूप जानकर स्वरूप का ध्यान करना।
१४. प्रश्न : यहाँ कोई तर्क करे कि कोई जीव शास्त्र का अध्ययन तो बहुत करता है और विषयादिक का त्यागी नहीं होता, तो उसके शास्त्र का अध्ययन कार्यकारी है या नहीं ? यदि है, तो महन्त पुरुष क्यों विषयादिक तजें ? और यदि नहीं तजें तो ज्ञानाभ्यास की महिमा कहाँ रही ?
उत्तर : शास्त्राभ्यासी दो प्रकार के हैं, एक लोभार्थी और एक धर्मार्थी।
वहाँ जो जीव अन्तरंग अनुराग के बिना ख्याति, पूजा, लाभादिक के प्रयोजन से शास्त्राभ्यास करे, वह लोभार्थी है; वह विषयादिक का त्याग नहीं करता। अथवा ख्याति, पूजा, लाभादिक के अर्थ विषयादिक का त्याग भी करता है; फिर भी उसका शास्त्राभ्यास कार्यकारी नहीं है।
जो जीव अन्तरंग अनुराग से आत्महित के अर्थ शास्त्राभ्यास करता है, वह धर्मार्थी है।
प्रथम तो जैनशास्त्र ही ऐसे हैं कि जो उनका धर्मार्थी होकर अभ्यास करता है, वह विषयादिक का त्याग करता ही करता है; उसका तो ज्ञानाभ्यास कार्यकारी है ही।
कदाचित् पूर्व कर्मोदय की प्रबलता से न्यायरूप विषयादिक का त्याग न हो सके, तो भी उसके सम्यग्दर्शन-ज्ञान होने के कारण ज्ञानाभ्यास
सम्यग्ज्ञानचंद्रिका-पीठिका कार्यकारी होता है; जिसप्रकार असंयत गुणस्थान में विषयादिक के त्याग बिना भी मोक्षमार्गपना होता है।
१५. प्रश्न : जो धर्मार्थी होकर जैनशास्त्रों का अभ्यास करता है, उसके विषयादिक का त्याग न हो सके, ऐसा तो नहीं बनता; क्योंकि विषयादिक का सेवन परिणामों से होता है और परिणाम स्वाधीन होते हैं। ___उत्तर : परिणाम दो प्रकार के हैं ह्र एक बुद्धिपूर्वक, एक अबुद्धिपूर्वक। वहाँ जो परिणाम अपने अभिप्राय के अनुसार हों, वे बुद्धिपूर्वक और जो परिणाम दैव (कर्म) निमित्त से अपने अभिप्राय से अन्यथा (विरुद्ध) हों, वे अबुद्धिपूर्वक।
जिसप्रकार सामायिक करते समय धर्मात्मा का अभिप्राय तो ऐसा होता है कि मैं अपने परिणाम शुभरूप रखू, वहाँ जो शुभ परिणाम ही हों, वे तो बुद्धिपूर्वक हैं और यदि कर्मोदय से स्वयमेव अशुभ परिणाम हों, वे अबुद्धिपूर्वक जानना।
उसीप्रकार धर्मार्थी होकर जो जैनशास्त्रों का अभ्यास करता है, उसका अभिप्राय तो विषयादिक के त्यागरूप वीतरागभाव की प्राप्ति का ही होता है। वहाँ पर वीतरागभाव होता है, वह बुद्धिपूर्वक है और चारित्रमोह के उदय से (उदय के वश होने पर) सरागभाव होता है, वह अबुद्धिपूर्वक है। अतः स्ववश बिना (परवश) जो सरागभाव होते हैं, उनसे उसकी विषयादिक की प्रवृत्ति दिख रही है; क्योंकि बाह्यप्रवृत्ति का कारण परिणाम है।
१६. प्रश्न : यदि इसीप्रकार है, तो हम भी विषयादिक का सेवन करेंगे और कहेंगे ह हमारे उदयाधीन कार्य होते हैं।
उत्तर : रे मूर्ख ! कहने से तो कुछ होता नहीं, सिद्धि तो अभिप्राय के अनुसार होती है। इसलिए जैनशास्त्रों के अभ्यास के द्वारा अपने अभिप्राय को सम्यक्प करना। अन्तरंग में विषयादिक सेवन का अभिप्राय हो, तो धर्मार्थी नाम नहीं पाता। इसप्रकार चरणानुयोग के पक्षपाती को इस शास्त्र के अभ्यास में सन्मुख किया।