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________________ ४ अविरतसम्यक्त्व चौथे गुणस्थान का वर्णन करने की प्रतिज्ञा (दोहा) मिश्र दसा पूरन भई, कही यथामति भारिख । अब चतुर्थ गुनथान विधि, कहौं जिनागम सारिव ॥ २३ ॥ अर्थ - अपने क्षयोपशम के अनुसार मिश्र गुणस्थान का कथन समाप्त हुआ। अब जिनागम की साक्षीपूर्वक चौथे गुणस्थान का वर्णन करता हूँ ।। २३ ।। चौथे गुणस्थान का वर्णन (सवैया इकतीसा ) केई जीव समकित पाइ अर्ध पुद्गल परावर्त काल तांई चोरवे होइ चित्त के । केई एक अंतरमुहूरत मैं गंठि भेदि, मारग उलंघि सुख वेदै मोख वित्त के ॥ तैं अंतरमुहूरत सौं अर्धपुद्गल लौं, जेते समै होहिं तेते भेद समकित के । जाही समै जाक जब समकित होइ सोई, तब सौं गुन गहै दोस दहै इतके ॥ २४ ॥ शब्दार्थ :चोखे = अच्छे । वेदै = भोगे । दहै = जलावे । इतके = संसार के । अर्थ :- जिस किसी जीव के संसार संसरण का काल अधिक से अधिक अर्द्धपुद्गल परावर्तन और कम से कम अंतर्मुहूर्त शेष रहता है; वह निश्चय सम्यग्दर्शन ग्रहण करके चतुर्गतिरूप संसार को पार करने वाले मोक्षसुख की बानगी लेता है। अंतर्मुहूर्त से लगाकर अर्द्धपुद् गल परावर्तन काल के जितने समय हैं, उतने ही सम्यक्त्व के भेद हैं। जिस समय जीव को सम्यक्त्व प्रगट होता है; तभी से आत्मगुण प्रगट होने लगते हैं और सांसारिक दोष नष्ट हो जाते हैं ।। २४ ।। (8) अविरत सम्यक्त्व गुणस्थान (दोहा) अध अपूर्व अनिवृत्ति त्रिक, करन करै जो कोइ । मिथ्या गंठि विदारि गुन, प्रगटै समकित सोइ ॥ २५ ॥ अर्थ :- जो अधःकरण, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण पूर्वक मिथ्यात्व का अनुदय करता है; उसे आत्मानुभव गुण प्रगट होता है और वही सम्यक्त्व है ।। २५ । सम्यक्त्व के आठ विवरण (दोहा) समकित उतपति चिन्ह गुन, भूषन दोष विनास । अचार जुत अष्ट विधि, वरनौं विवरन तास ||२६|| अर्थ :- सम्यक्त्व का स्वरूप, उत्पत्ति, चिह्न, गुण, भूषण, दोष, नाश और अतिचार ये सम्यक्त्व के आठ विवरण हैं ।। २६ ।। (१) सम्यक्त्व का स्वरूप (चौपाई) सत्यप्रतीति अवस्था जाकी । दिन दिन रीति गहै समता की ॥ छिन छिन करै सत्य को साकौ । समकित नाम कहावै ताकौ ॥ २७ ॥ अर्थ :- आत्मस्वरूप की सत्यप्रतीति होना, दिन-प्रतिदिन समताभाव में उन्नति होना, और क्षण क्षणपर परिणामों की विशुद्धि होना; इसी का नाम सम्यग्दर्शन है ।। २७ ।। (२) सम्यक्त्व की उत्पत्ति (दोहा) कै तौ सहज सुभाव कै, उपदेसै गुरु कोइ । चहूँति सैनी जीव कौ, सम्यकदरसन होइ ॥ २८ ॥ अर्थ :चतुर्गति में सैनी जीव को सम्यग्दर्शन प्रगट होता है, सो अपने आप अर्थात् निसर्गज और गुरु के उपदेश से अर्थात् अधिगमज सम्यक्त्व उत्पन्न होता है ।। २८ ।।
SR No.009450
Book TitleGunsthan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2013
Total Pages25
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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