SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 6
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १० समयसारनाटक- गर्भित गुणस्थान एकान्त मिथ्यात्व का स्वरूप (दोहा) जो इकंत नय पच्छ गहि, छकै कहावै दच्छ। सो इकंतवादी पुरुष, मृषावंत परतच्छ ॥। ११ ।। शब्दार्थ :- मृषावंत = झूठा। परतच्छ (प्रत्यक्ष) = साक्षात् । अर्थ :- जो अनेक नयों में से किसी एक नय का हठ ग्रहण करके उसी में लीन होकर अपने को तत्त्ववेत्ता कहता है, वह पुरुष एकान्तवादी साक्षात् मिथ्यात्वी है ।। ११ ।। विपरीत मिथ्यात्व का स्वरूप (दोहा) ग्रंथ उक्त पथ उथपि जो, थापै कुमत स्वकीउ । सुजस हेतु गुरुता गहै, सो विपरीती जीउ ।। १२ ।। शब्दार्थ :- उकत = कहा हुआ। उथपि = खंडन करके । गुरुता = बड़प्पन | अर्थ :- जो आगमकथित मार्ग का खंडन करके स्नान, छुआछूत आदि में धर्म बतलाकर अपना कपोलकल्पित पाखंड पुष्ट करता है व अपनी नामव लिये बड़ा बना फिरता है, वह जीव विपरीत-मिथ्यात्वी है ।। १२ ।। विनय मिथ्यात्व का स्वरूप (दोहा) देव कुदेव सुगुरु कुगुरु, गर्नै समान जु कोइ । नमै भगति सौं सबनि कौं, विनै मिथ्याती सोइ || १३ || अर्थ :- जो सुदेव-कुदेव, सुगुरु-कुगुरु, सत्शास्त्र - कुशास्त्र, सबको एकसा गिनता है और विवेकरहित सब की भक्ति वन्दना करता है, वह जीव विनय - मिथ्यात्वी है ।। १३ ।। संशय मिथ्यात्व का स्वरूप (दोहा) जो नाना विकलप गहै, रहै हियै हैरान । थिर है तत्त्व न सद्दहै, सो जिय संसयवान || १४ || अर्थ :- जो जीव अनेक कोटि का अवलम्बन करके चंचल चित्त (हैरान) रहता है और स्थिर चित्त होकर पदार्थ का यथार्थ श्रद्धान नहीं करता, वह संशयमिथ्यात्वी है ।। १४ ।। (6) मिथ्यात्व गुणस्थान ११ अज्ञान मिथ्यात्व का स्वरूप (दोहा) दुखद सौं, सुरत होत नहि रंच । गहल रूप वरतै सदा, सो अग्यान तिरजंच ॥ १५ ॥ शब्दार्थ :- सुरत = सुध । रंच = जरा भी। गहल = अचेतता । अर्थ :- जिसको शारीरिक कष्ट के उद्वेग से किंचित् मात्र भी सुध नहीं है और सदैव तत्त्वज्ञान से अनभिज्ञ रहता है, वह जीव अज्ञानी है, पशु के समान हैं ।। १५ ।। मिथ्यात्व के दो भेद (दोहा) पंच भेद मिथ्यात के, कहै जिनागम जोइ । सादि अनादि सरूप अब, कहूँ अवस्था दोइ || १६ || अर्थ :- जैन शास्त्रों में जो पाँच प्रकार के मिथ्यात्व का वर्णन किया है, उसके सादि और अनादि दोनों का स्वरूप कहता हूँ ।। १६ ।। सादि मिथ्यात्व का स्वरूप (दोहा) जो मिथ्या दल उपसमै, ग्रंथि भेदि बुध होइ । फिर आवै मिथ्यात मैं, सादि मिथ्याती सोइ ।। १७ ।। अर्थ :- जो जीव दर्शनमोहनीय का दल अर्थात् मिथ्यात्व, सम्यक्मिथ्यात्व और सम्यक्प्रकृति को उपशम करके मिथ्यात्व गुणस्थान से चढ़कर सम्यक्त्व का स्वाद लेता है और फिर मिथ्यात्व में गिरता है, वह सादि मिथ्यात्वी है ।। १७ ।। अनादि मिथ्यात्व का स्वरूप (दोहा) जिनि ग्रंथी भेदी नहीं, ममता मगन सदीव | सो अनादि मिथ्यामती, विकल बहिर्मुख जीव ॥ १८ ॥ शब्दार्थ :- विकल = मूर्ख । बहिर्मुख = पर्यायबुद्धि । अर्थ :- जिसने मिथ्यात्व का कभी अनुदय नहीं किया, सदा शरीरादि से अहंबुद्धि रखता आया है वह मूर्ख आत्मज्ञान से शून्य अनादि मिथ्यात्वी है ।। १८ ॥ ...
SR No.009450
Book TitleGunsthan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2013
Total Pages25
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy