________________
समयसारनाटक-गर्भित गुणस्थान अर्थ – देशव्रत गुणस्थान में ग्यारह प्रतिमाएँ ग्रहण करने का उपदेश है। सो शुरू से उत्तरोत्तर अंगीकार करना चाहिये और नीचे की प्रतिमाओं की क्रिया छोड़ना नहीं चाहिये ।।७२ ।।
प्रतिमाओं की अपेक्षा श्रावकों के भेद (दोहा) षट प्रतिमा ताई जघन, मध्यम नौ पर्यन्त | उत्तम दसमी ग्यारमी, इति प्रतिमा विरतंत ||७३ ।।
अर्थ- छठवीं प्रतिमा तक जघन्य श्रावक, नववीं प्रतिमा तक मध्यम श्रावक और दसवीं-ग्यारहवीं प्रतिमा धारण करनेवालों को उत्कृष्ट श्रावक कहते हैं। यह प्रतिमाओं का वर्णन पूरा हुआ।।७३ ।।
पाँचवें गुणस्थान का काल (चौपाई) एक कोड़ि पूरव गनि लीजै।
तामैं आठ बरस घटि कीजै॥ यह उत्कृष्ट काल थिति जाकी।
अंतरमुहूरत जघन दशा की||७४ ।। अर्थ :- पाँचवें गुणस्थान का उत्कृष्ट काल, आठ वर्ष कम एक कोटि पूर्व और जघन्य काल, अंतर्मुहूर्त है ।।७४ ।।
एक पूर्व का प्रमाण (दोहा) सत्तर लाख किरोड़ मित, छप्पन सहस किरोड़। ऐते बरस मिलाइके, पूरव संख्या जोड़।।७५ ||
अर्थ - सत्तर लाख, छप्पन हजार में एक करोड़ का गुणा करने से जो संख्या प्राप्त होती है; उतने वर्ष का एक पूर्व होता है ।।७५ ।।
अंतर्मुहूर्त मान (दोहा) अंतर्मुहूरत द्वै घडी, कछुक घाटि उतकिष्ट | एक समय एकावली, अंतरमुहूर्त कनिष्ट ||७६ ।।
अर्थ - दो घड़ी में से एक समय कम अंतर्मुहूर्त का उत्कृष्ट काल है और एक समय अधिक एक आवली अंतर्मुहूर्त का जघन्य काल है तथा बीच के असंख्यात भेद हैं।।७६ ।। ... १. चौरासी लाख वर्ष का एक पूर्वांग होता है और चौरासी लाख पूर्वांग का एक पूर्व होता है। २. असंख्यात समय की एक आवली होती है।
प्रमत्त छठे गुणस्थान का वर्णन प्रतिज्ञा (दोहा) यह पंचम गुनथान की, रचना कही विचित्र ।
अब छटे गुनथान की, दसा कहूँ सुन मित्र ||७७ ।। अर्थ - पाँचवें गुणस्थान का यह विचित्र वर्णन किया; अब हे मित्र! छठै गुणस्थान का स्वरूप सुनो ।।७७ ।।
छठे गुणस्थान का स्वरूप (दोहा) पंच प्रमाद दशा धरै, अट्ठाईस गुनवान | थविरकल्पि जिनकल्पि जुत, है प्रमत्तगुनथान ||७८ ॥
अर्थ - जो मुनि अट्ठाईस मूलगुणों का पालन करते हैं; परन्तु पाँच प्रकार के प्रमादों में किंचित् वर्तते हैं, वे मुनि प्रमत्तगुणस्थानी हैं । इस गुणस्थान में स्थविरकल्पी और जिनकल्पी दोनों प्रकार के साधु रहते हैं।।७८ ।।
पाँच प्रमादों के नाम (दोहा) धर्मराग विकथा वचन, निद्रा विषय कषाय। पंच प्रमाद दसा सहित, परमादी मुनिराय ||७९।।
अर्थ - धर्म में अनुराग, विकथावचन, निद्रा, विषय', कषाय ऐसे पाँच प्रमाद सहित साधु छठे गुणस्थानवर्ती प्रमत्तमुनि होते हैं।।७९ ।।
साधु के अट्ठाईस मूलगुण (सवैया इकतीसा) पंच महाव्रत पालै पंच समिति संभालै,
पंच इंद्री जीति भयौ त्यागी चित चैन कौ। षट आवश्यक क्रिया द्रवित भावित साथै,
प्रासुक धरा मैं एक आसन है सैन कौ।। मंजन न करै केश लंचै तन वस्त्र मंचै.
त्यागे दंतधावन सुगंधश्वास बैन कौ। १-२. यहाँ अनंतानुबंधी, अप्रत्याख्यान-प्रत्याख्यान इन तीन चौकड़ी की बारह कषायों का अनुदय और संज्वलन कषाय का तीव्र उदय रहता है, इससे वे साधु किंचित् प्रमाद के वश में होते हैं और शुभाचार में विशेषतया वर्तते हैं। यहाँ विषय सेवन वा स्थूलरूप से कषाय में वर्तने का प्रयोजन नहीं है। हाँ, शिष्यों को ताडना आदि का विकल्प तो भी है।
(16)