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गागर में सागर
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हिंसा की उत्पत्ति हिंसक के हृदय में होती है, हिंसक की आत्मा में होती है, हिंस्थ में नहीं । • इस बात को हमें अच्छी तरह समझ लेना चाहिए । हत्या के माध्यम से उत्पन्न मृत्यु को द्रव्यहिंसा कहा जाता है, पर सहज मृत्यु को तो द्रव्यहिंसा भी नहीं कहा जाता । भावहिंसापूर्वक हुआ परघात ही द्रव्यहिंसा माना जाता है, भावहिंसा के बिना किसी भी प्रकार की मृत्यु द्रव्यहिंसा नाम नहीं पाती ।
जब कोई व्यक्ति हिंसा का निषेध करता है, हिंसा के विरुद्ध वात करता है तो उसके अभिप्राय में भावहिंसा ही अपेक्षित होती है; क्योंकि अहिंसक जगत में मृत्यु का नहीं, हत्याओं का प्रभाव ही अपेक्षित रहता है ।
भाई ! यहाँ तो इससे भी बहुत आगे की बात है । यहाँ मात्र मारने के भाव को ही हिंसा नहीं कहा जा रहा है, अपितु सभी प्रकार के रागभाव को हिंसा बताया जा रहा है. जिसमें बचाने का भाव भी सम्मिलित है ।
इसके सन्दर्भ में विशेष जानने के लिए मेरा "अहिंसा" नामक निबंध पढ़ना चाहिए ।
भाई ! दूसरों को मारने या बचाने का भाव उसके सहज जीवन में हस्तक्षेप है । सर्वप्रभुतासम्पन्न इस जगत में पर के जीवन-मरण में हस्तक्षेप करना अहिंसा कैसे माना जा सकता है ? अनाक्रमण के समान हस्तक्षेप की भावना भी अहिंसा में पूरी तरह समाहित है । यदि दूसरों पर आक्रमण हिंसा है तो उसके कार्यों में हस्तक्षेप भी हिंसा ही है, उसकी सर्वप्रभुतासम्पन्नता का श्रनादर है, ग्रपमान है ।
भगवान महावीर के अनुसार प्रत्येक ग्रात्मा स्वयं सर्वप्रभुतासम्पन्न द्रव्य है, अपने भले-बुरे का सम्पूर्ण उत्तरदायित्व स्वयं उसका है; उसमें किसी भी प्रकार का हस्तक्षेप वस्तुस्वरूप को स्वीकार नहीं है । इस परम सत्य की स्वीकृति ही भगवती ग्रहिंसा की सच्ची ग्राराधना है । भगवती श्रहिंसा भगवान महावीर की साधना की चरम उपलब्धि है, उनकी पावन दिव्यध्वनि का नवनीत है, जन्म-मरण का प्रभाव करने वाला रसायन है, परम-प्रमृत है ।
' तीर्थंकर महावीर और उनका सर्वोदय तीर्थं, पृष्ठ १८५