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भगवान महावीर श्रीर उनकी ग्रहिमा
यहाँ एक प्रश्न संभव है कि क्या रागादिभाव की उत्पत्ति मात्र से ही हिंसा हो जाती है, चाहे जीव मरे या न मरे ? क्या जीवों के मरण से हिंसा का कोई सम्बन्ध नहीं है ?
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हाँ, भाई ! बात तो ऐसी ही है; पर जगत तो यही कहता है कि जबतक प्राणियों का घात न हो, जीवों का मरण न हो; तबतक हिंसा कैसे हो सकती है, तबतक हिंसा की उत्पत्ति कैसे मानी जा सकती है ? यह भोला जगत तो हिंसा का सम्बन्ध मृत्यु से ही जोड़ता है; परन्तु गंभीरता से विचार करें तो बात दूसरी ही नजर आती है ।
यदि जीवों के मररण को हिंसा माना जायगा तो फिर जन्म को अहिंसा मानना होगा; क्योंकि हिंसा और अहिंसा के समान जन्म और मृत्यु भी परस्पर विरोधी भाव हैं । जन्म को श्रहिंसा और मरण को हिंसा मानने पर यह बात स्वतः समाप्त हो जाती है कि आज जगत में हिंसा अधिक फैलती जा रही है; क्योंकि जन्म और तो सदा समान ही रहता है; जो जन्मता है, वही तो मरता है, वह तत्काल कहीं न कहीं जन्म ले लेता है
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मृत्यु का अनुपात मरता है तथा जो
इससे बचने के लिए यदि कोई कहे कि मृत्यु का विरोधी जन्म नहीं, जीवन है; तो बात और भी अधिक जटिल हो जावेगी, उलझ जावेगी; क्योंकि व्यक्ति जिन्दा तो वर्षों तक रहता है और मरण तो क्षणिक अवस्था का ही नाम है ।
इसप्रकार मृत्यु को हिंसा और जीवन को अहिंसा मानने पर अहिंसा का पलड़ा और भी अधिक भारी हो जायगा, जबकि यह बात सभी एक स्वर से स्वीकार करते हैं कि आज हिंसा बहुत बढ़ती जा रही है ।
भाई ! न जन्म अहिंसा है, न जीवन अहिंसा है; और न मृत्यु ही हिंसा है । मृत्यु तो प्राणघारियों का सहज स्वभाव है, ( मरणं प्रकृति शरीरिणाम् ) वह हिंसा कैसे हो सकती है ? लोक में हिंसकभाव के बिना हुई मृत्यु को हिंसा कहा भी नहीं जाता है ।
बाढ़ आने पर लाखों लोगों के मर जाने पर भी यह तो कहा जाता है कि भयंकर विनाश हुआ, बर्बादी हुई, जन-धन की अपार हानि हुई, परन्तु यह कभी नहीं कहा जाता कि हिंसा का ताण्डव नृत्य हुग्रा । पर उपद्रवों को शान्त करने के लिए पुलिस द्वारा गोली चलाये जाने पर यदि एक भी व्यक्ति की मृत्यु हो जाती है तो कहा जाता है कि हिंसा का ताण्डव नृत्य हुग्रा । अखबारों के मुख्य पृष्ठ पर बड़े-बड़े अक्षरों में छपता है,