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गागर में सागर
पहिले हिंसा प्रात्मा अर्थात् मन में उत्पन्न होती है। यदि क्रोधादिरूप हिंसा मन में न समाये तो फिर वाणी में प्रकट होती है। यदि वाणी से भी काम न चले तो काया में प्रस्फुटित होती है । हिंसा की उत्पत्ति का यही क्रम है।
अभी अपनी यह सभा शान्ति से चल रही है। पर यदि कुछ लोग इसमें उपद्रव करने लगे तो क्या होगा? चिन्ता करने की कोई बात नहीं है, यहाँ कोई उपद्रव होनेवाला नहीं है। मैं तो अपनी बात स्पष्ट करने के लिए मात्र उदाहरण दे रहा हूँ।
हाँ, तो आप वताइये कि यहाँ अभी उपद्रव होने लगे तो क्या होगा?
होगा क्या ? कुछ नहीं। कुछ देर तो कुछ नहीं होगा, जवतक व्यवस्थापकों का क्रोध मन तक ही सीमित रहेगा, तबतक तो कुछ नहीं होगा; पर जव क्रोध उनके मन में समायेगा नहीं तो मेरा व्याख्यान बन्द हो जायगा और यह स्पीकर व्यवस्थापक महोदय के हाथ में होगा। वे लोगों से कहेंगे कि जिसको सुनना हो, शान्ति से सुनिये; यदि नहीं सुनना है तो अपने घर चले जायँ, यहाँ उपद्रव करने की आवश्यकता नहीं है ।
___ यदि इतने से भी काम न चले और उपद्रव बढ़ता ही चला जाय तो वे उत्तेजित होकर आदेश देने लगेंगे कि वालिन्टियरों ! इन्हें बाहर निकाल दो।
इसप्रकार हम देखते हैं कि क्रोधादि भावोंरूप हिंसा की उत्पत्ति पहले मन में, फिर वचन में और उसके बाद काया में होती है । भगवान महावीर ने सोचा कि चोर से निपटने की अपेक्षा तो चोर की अम्मा से निपट लेना अधिक अच्छा है कि जिससे चोर की उत्पत्ति ही संभव न रहे । यदि हिंसा मन में ही उत्पन्न न होगी तो फिर वारणी और काया में प्रस्फुटित होने का प्रश्न ही उपस्थित न होगा।
अतः भगवान महावीर ने हिंसा के मूल पर प्रहार करना उचित समझा । यही कारण है कि वे कहते हैं कि प्रात्मा में रागादि की उत्पत्ति होना ही हिंसा है और आत्मा में रागादिभावों की उत्पत्ति नहीं होना ही अहिंसा है।
भाई ! एक बात यह भी तो है कि यदि हिंसा एक बार किसी के मन में उत्पन्न हो गई तो फिर वह कहीं न कहीं प्रगट अवश्य होगी।