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गागर में सागर
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हैं, पेड़-पौधे भी नष्ट होते हैं; यहाँ तक कि जहाँ अणुबम गिरता है, वहाँ की जमीन भी ऐसी हो जाती है कि हजार वर्ष तक घास भी न उगे । भाई ! आज हिंसा का भी राष्ट्रीयकरण हो गया है । वह भी अव व्यक्तिगत नहीं रही है ।
विनाश की इस प्रलयंकारी बाढ़ को रोकने में यदि कोई समर्थ है तो वह एक मात्र भगवान महावीर की अहिंसा; अतः मैं कहता हूँ कि भगवान महावीर की अहिंसा की जितनी आवश्यकता प्राज है, उतनी भगवान महावीर के जमाने में भी नहीं थी; इसलिए कहा जा सकता है कि भगवान महावीर आज भी अप टू डेट हैं ।
यह बात तो हुई आज के संदर्भ में भगवान महावीर के अहिंसा सिद्धान्त की उपयोगिता की; पर मूल बात तो यह है कि भगवान महावीर की दृष्टि में हिंसा का वास्तविक स्वरूप क्या है ?
आज यह प्रचलन-सा हो गया है कि जब कोई व्यक्ति अहिंसा की बात कहेगा तो कहेगा कि हिंसा मत करो - बस यही अहिंसा है; पर हिंसा का भी तो वास्तविक स्वरूप कोई स्पष्ट नहीं करता । यदि हिंसा को छोड़ना है और अहिंसा को जीवन में अपनाना है तो हमें हिंसा-अहिंसा के स्वरूप पर गहराई से विचार करना होगा, बिना समझे किया गया ग्रहण - त्याग अनर्थक ही होता है अथवा सम्यक् समझ बिना ग्रहण और त्याग संभव ही नहीं है । जैसा कि कहा गया है :
"संग्रह त्याग न बिनु पहिचाने""
अथवा
"बिन जाने तं दोष-गुनन को कैसे तजिए ?"
अतः हिंसा के त्याग और अहिंसा के ग्रहरण के पूर्व उन्हें गहराई से समझना अत्यन्त ग्रावश्यक है ।
एक बार महर्षि व्यास के पास कुछ शिष्यगरण पहुँचे और उनसे निवेदन करने लगे :
"महाराज ! आपने तो अठारह पुराण बनाये हैं । संस्कृत भाषा में लिखे गये ये मोटे-मोटे पोथन्ने पढ़ने का न तो हमारे पास समय ही है. और न हम संस्कृत भाषा ही जानते हैं । हम तो अच्छी तरह हिन्दी भी नहीं जानते हैं तो संस्कृत में लिखे ये पुराण कैसे पढ़ें ? हमारे पास इतना
महाकवि तुलसीदास : रामचरितमानस
२ कविवर दौलतराम : छहढाला; तीसरी ढाल, छन्द ११
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