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गाथा ८६७पर प्रवचन
के कारण यह हानि तो हई कि हम चतुर्गति में भ्रमण कर रहे हैं, अनन्त दुख भोग रहे हैं। पर स्व को जाननेरूप हमारा स्वभाव समाप्त थोड़े ही हो गया है । ध्यान रहे, स्वभाव कभी समाप्त नहीं होता । स्वभाव कहते ही उसे हैं, जो कभी समाप्त न हो। समाप्त हो जाय, तो वह स्वभाव कैसा? ____ इसीप्रकार यदि तू कुछ समय पर को न जाने तो उसमे तेरा पर को जानने का स्वभाव समाप्त नहीं हो जावेगा। जब भी यह बात आती है कि पर को जानना छोड़ अपने प्रात्मा को जानो, तो यह पर में रुचिवाला शास्त्राभ्यासी अज्ञानी पुकार करने लगता है कि पर को जानना तो प्रात्मा का स्वभाव है, उसे कैसे छोड़ दें?
भाई ! यह स्वभाव छोड़ने की बात नहीं है, अपितु अपने को जानने की बात है। अपने को जानना भी तो आत्मा का स्वभाव है, उसे अनादिकाल में नहीं जाना, उसे जानना छोड़े हये हैं, इसकी तो चिन्ता तुझ नहीं हई और 'पर को जानना यदि एक मिनट को भी बन्द करेंगे तो आत्मा का परप्रकाशक स्वभाव समाप्त हो जायेगा' - यह चिन्ता सता रही है । यह कैसा न्याय है तेरा ?
___ वास्तव में तो बात यह है कि जिनको रुचि परपदार्थों में ही है, प्रात्मा में नहीं है। उन्हें इसीप्रकार के विकल्प आते हैं। वे येन-केन प्रकारेण अपनी रुचि का पोषण करते हैं । उनकी रुचि और राग वस्तुस्वरूप का सच्चा निर्णय नहीं करने देते।
मिथ्यारुचि और राग निर्णय को प्रभावित करते हैं। किसी भी पदार्थ को देखते ही रागी बोल उठता है :- यह तो बहुत अच्छा है या यह तो बहुत बुरा है; पर भाई ! कोई भी पदार्थ अच्छा-बुरा नहीं होता, वह तो जैसा है, वैसा ही है । ज्ञान का काम तो उमे जैसा है, वैसा जानना है, न कि उसमें अच्छे-बुरे का भेद डालना; पर राग के जोर में जान की दिशा बदल जाती है।
जिसप्रकार चुम्वक तेजी में फेंके गये लोहे की भी दिशा बदल देता है, उसीप्रकार यह राग का चुम्बक ज्ञान को सही निर्णय नहीं लेने देता। जान किसी वस्तु को जानने की ओर जाता है तो राग उसे अच्छे-बुरे विकल्पों की ओर मोड़ देता है, पर की रुचि उसे अपने पराये के चक्कर में उलझा देती है। मिथ्यात्व के जोर से जान भी मिथ्याज्ञान हो जाता है।