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गाथा ८९७ पर प्रवचन
यहां तारणस्वामी कहते हैं कि प्रात्मा का स्वभाव तो ज्ञान है, जानना मात्र है, पर में कुछ करना नहीं; अतः हे प्रात्मा! तू मात्र जानने तक ही सीमित रह ।
लोक में कहावत है कि सुनना सबकी, करना मन की; पर जिनवाणी की आज्ञा है कि जानना सबको, जमना अपने में । जानने योग्य तो सम्पूर्ण जगत है; पर जमने योग्य, रमने योग्य, अपना मानने योग्य एक निज भगवान आत्मा ही है । ज्ञान स्वपर-प्रकाशक होता है । वह अपने को भी जाने और पर को भी जाने, इसमें कोई दोष नहीं है, पर को जानने में कोई दोष नहीं है । हाँ, पर को अपना मानना, उसका ही ध्यान करना, उसी में रम जाना अपराध हे, बंध का कारण है, दुःख का कारण है।
यदि पर को जानने में कोई दोष होता तो केवली भगवान पर को क्यों जानते ? वे तो सर्वज्ञ हैं न ? जो सबको जाने, उसे ही सर्वज्ञ . कहते हैं । भाई ! अात्मा में एक सर्वज्ञत्व नाम की शक्ति है । समयसार में सैंतालीस शक्तियों का वर्णन पाता है। उनमें ज्ञानशक्ति के साथ एक सर्वज्ञत्वशक्ति भी है। अत: सबको जानना आत्मा का स्वभाव है। प्रात्मा अपना स्वभाव कैसे छोड़ सकता है ? पर यह ध्यान रहे कि पर में कुछ करना प्रात्मा का स्वभाव नहीं है।
इसीप्रकार आत्मा में एक सर्वदशित्वशक्ति भी है, जिसके कारण आत्मा सवको देखता है । सबको देखना-जानना प्रात्मा का सहज स्वभाव है। जब आत्मा का स्वभाव स्व-पर को देखना-जानना है, तब देखनेजानने से इन्कार कैसे किया जा सकता है ?
जब ज्ञानी कहते हैं कि उन्हें भी देख लेंगे, तब उनका प्राशय अपने इस सर्वदर्शी-सर्वज्ञ स्वभाव की स्वीकृति से ही होता है; पर अजानी उनका भाव नहीं समझता, वह तो उसे धमकी ही समझता है: पर इसके लिये हम क्या करें ? यह अपनी भूल नो अजानी को स्वयं ही मिटानी होगी।
प्रश्न :- यदि ऐसा है तो फिर आप बार-बार यह क्यों कहते हैं पर को तो अनन्त बार जाना, पर आज तक अपने ग्रात्मा को नही जाना; अत: पर का जानना बन्द कर, एक बार अपने प्रात्मा को तो जान । जब पर को जानना प्रात्मा का स्वभाव है, तो पर को जानने का निषेध क्यों?