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ज्ञानसमुच्चयसार गाथा ८६७ पर प्रवचन 'निज श्रात्मा को जानकर पहिचानकर जमकर भी । जो बन गये परमात्मा पर्याय में भी वे सभी ॥ वे साध्य हैं श्राराध्य हैं आराधना के सार हैं । हो नमन उन जिनदेव को जो भवजलधि के पार हैं ।
यह "ज्ञानसमुच्चयसार" नामक ग्रन्थ है । इसके अन्त में अनेक गाथाओं में तारणस्वामी ने "ज्ञानसमुच्चयसार" नाम की व्याख्या की है, सार्थकता सिद्ध की है । उसमें सर्वप्रथम गाथा ८७वीं गाथा है । ग्राज उसी पर चर्चा करेंगे । गाथा इसप्रकार है :
"ज्ञानसमुच्चयसारं, उवइट्ठ जिनवरेहि जं ज्ञानं । जिन उत्तं ज्ञानसहावं, सुद्धं ध्यानं च ज्ञानसमुच्चयसारं ॥
जिनेन्द्र भगवान द्वारा कहा गया जो ज्ञान है, वही ज्ञानसमुच्चयसार है अथवा जिनेन्द्र भगवान कथित ज्ञानस्वभावी आत्मा का शुद्ध ध्यान ही ज्ञानसमुच्चयसार है ।"
तारणस्वामी कहते हैं कि जिनेन्द्र भगवान द्वारा कहा गया जो संपूर्ण ज्ञान है, यह जानसमुच्चयसार उसका ही संक्षिप्त संकलन है, इसमें मेरा कुछ भी नहीं है । अपनी बात और भी स्पष्ट करते हुए वे कहते है कि जिनेन्द्र भगवान ने ज्ञानानन्दस्वभावी भगवान आत्मा का जो स्वरूप बताया है, उसे जानकर ज्ञानानन्दस्वभावी निज भगवान आत्मा का शुद्ध ध्यान करना ही जिनोक्त संपूर्ण ज्ञान का सार है । यही बात इम ज्ञानसमुच्चयसार ग्रन्थ में बनाई गई है ।
देखो, कितनी गजव को बात कही कि संपूर्ण ज्ञान का सार ज्ञानानन्द स्वभावी भगवान ग्रात्मा का ध्यान करना ही है। भाई, यही बात तो समयसार में पग-पग पर बताई गई है । चाहे समयसार हो, चाहे ज्ञानसमुच्चयसार हो, जिनेन्द्र भगवान की परम्परा का कोई भी ग्रन्थ हो - सभी का सार एक मात्र यही तो है ।
अपने आत्मा का ध्यान ही एकमात्र कर्तव्य है । " शुद्ध ध्यानं च ज्ञानममुच्चयसारं" - कहकर स्वामीजी ने एकदम स्पष्ट कर दिया है कि ज्ञानसमुच्चयसार अर्थात् भगवान ग्रात्मा का ध्यान हो धर्म है ।