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गागर में मागर
"जाको प्रिय न राम-वैदेही,
सो तजिए करोड़ बैरी सम यद्यपि परम सनेही । जिन्हें मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान राम व सीता प्रिय नहीं है, चाहे वे हमारे परमस्नेही ही क्यों न हों, उन्हें करोड़ शत्रुओं के समान त्याग देना चाहिए।"
अपनी बात के औचित्य को सिद्ध करने के लिए वे कुछ भक्तों के पौराणिक उदाहरण भी प्रस्तुत करते हैं :
"पिता तज्यो प्रह्लाद विभीषण बन्धु भरत महतारी । प्रह्लाद ने अपने रामविरोधो पिता को, विभीषण ने अपने रामविरोधी भाई को एवं भरत ने अपनी रामविरोधी माँ को जिसप्रकार त्याग दिया था, उमीप्रकार हमें भी रामविरोधी अपने स्नेहियों को त्याग देना चाहिए।" अन्त में निष्कर्ष के रूप में सिद्धान्त को प्रस्तुत करते हुए वे कहते हैं :
____ "मेरे तो सारे नाते राम सों मेरे संपूर्ण नाते राम के माध्यम से ही हैं। जो गम का विरोधी, वह मेरा विरोधी ग्रऔर जो राम का भक्त, वह मेरा मित्र - बम मेग तो यही हिसाव है।"
आत्मार्थी के सन्दर्भ में उक्त सत्र में मैं मात्र इतना ही मंशोधन करना चाहता हूँ कि
"मेरे तो सारे नाते पातमराम सों___मेरे अर्थात् प्रात्मार्थी के संपूर्ण नाते पानमराम के माध्यम से ही होते हैं।"
भाई ! तुलसीदासजी की रुचि थी मीता-राम में और हमारी मचि है आतमराम में । वे कहते थे कि मेरे सारे नाते राम सों और मैं कहता हूँ कि मेरे मारे नाते पातमराम मों।
आप चाहं जो भी कहें; पर मुझे तो एक ग्रात्मा की बात ही धर्म को वात लगती है, उसी में ग्रानन्द पाना है : अत: मैं तो सब जगह आत्मा की ही बात करता हूँ। भाई ! आप भी तो आत्मा ही हैं, पापको ग्रात्मा की बात में ग्रानन्द क्यों नहीं पाता ?
प्रात्मार्थी तो ग्रात्मा की रुचि और पागधना में ही होता है । जो बाह्य पदार्थों में ही लीन हो, रुचिवंत हो; उसे प्रात्मार्थी कैसे कहा जा सकता है ?