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सम्पादकीय
भारतीय इतिहास में धार्मिक और सांस्कृतिक उतार-चढ़ाव की दृष्टि से १६वीं सदी सबसे अधिक उथल-पुथल की सदी रही है । उस समय शासकों के धार्मिक उन्माद भरे अत्याचारों से समस्त हिन्दू एवं जैन समाज अत्यधिक आक्रान्त और आतंकित हो रहा था। उसके साधना और आराधना के केन्द्र निर्दयतापूर्वक नष्ट-भ्रष्ट किये जा रहे थे। धर्मायतनों की सुरक्षा चिन्तनीय हो गयी थी।
जहाँ जैनों का प्रचुर पुरातत्त्व यत्र-तत्र बिखरा हुआ था, उस मध्य प्रान्त और बुन्देलखण्ड के सुरम्य क्षेत्रों में यवन शासकों का विशेष आतंक था। वहाँ की जैन समाज अपने धर्मायतनों की सुरक्षा के लिए विशेष चिन्तित थी। यह आवश्यकता अनुभव की जा रही थी कि क्यों न कुछ काल के लिए अपने प्राराध्य अवशेषों को सुरक्षित गुप्त गर्भगृहों में छुपा दिया जावे और इसके स्थानापन्न जिनवाणी का पालम्बन लेकर अध्ययन-मनन-चिन्तन द्वारा आत्मा-परमात्मा की आराधना - उपासना की जावे और अपने धर्म का पालन किया जावे।
विचार तो उत्तम थे; परन्तु इनका क्रियान्वयन किसी प्रतिभावान, प्रभावशाली व्यक्तित्व के बिना संभव नहीं था; क्योंकि अधिकांश जनता प्रात्मज्ञानशून्य केवल पूजा-पाठ, तीर्थयात्रा, दान-पुण्य आदि बाह्य क्रियाओं को ही धर्म माने बैठी थी। उसमें ही धर्म का स्वरूप देखनेसमझनेवालों को यह बात समझाना आसान नहीं था कि ये धर्मायतन तो धर्मप्राप्ति के बाह्य साधन मात्र हैं, सच्चा धर्मायतन तो अपना आत्मा ही है और वह आत्मा अविनाशी तत्व है, उसे कोई ध्वस्तनष्ट-भ्रष्ट नहीं कर सकता।
एक ओर बाहरी उपद्रवों का संकट था.और दूसरी ओर आन्तरिक अज्ञानता का हठ । स्थिति तो विकट थी; परन्तु आवश्यकता को आविष्कार की जननी कहा जाता है - मानो इस उक्ति को सार्थक करते हुए ही तत्कालीन आवश्यकता की पूर्ति हेतु एक ऐसी प्रतिभा का उदय हुआ, जिसमें पुण्य और पवित्रता का मरिण-कंचन योग तो था ही, साथ ही उसमें उद्दाम काम और क्रोधादि कषायों को जीतने की भी अद्भुत क्षमता थी तथा उसकी वाणी में भी ऐसा जादू था कि प्रान्तरिक