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गाथा ७६ पर प्रवचन फिर देह में लिपटे, देह से भिन्न भगवान आत्मा के दर्शन भी असंभव .क्यों हो?
भाई ! आत्मा के अनुभव करने की यही विधि है । इस विधि से ही आजतक अनन्त जीव आत्मा का अनुभव करके अनन्त सुखी हो चुके हैं और भविष्य में भी जो जीव आत्मा का अनुभव करके सुखी होंगे, वे भी इसी विधि से होंगे ; कोई दूसरा उपाय नहीं है।
भाई ! तारणस्वामी कहते हैं कि "ममात्मा अंग सार्घ च" अर्थात् मेरा प्रात्मा शरीर के साथ रहकर भी उससे भिन्न है। वे बार-बार याद दिलाते हैं कि यहाँ जो देह-देवल में विराजमान, पर देह से भिन्न भगवान प्रात्मा की बात चल रही है, वह किसी अन्य आत्मा की बात नहीं है, अपितु अपने ही भगवान आत्मा की बात है। यह बात ४४वीं गाथा में भी कही थी और यहाँ फिर कह रहे हैं।
प्रश्न :- एक ही बात को बार-बार क्यों कहा जा रहा है ?
उत्तर :- इसलिए कि हम बार-बार भूल जाते हैं। यदि हम एक बार में ही समझ लें तो प्राचार्यदेव भी बार-बार न कहें, पर वे अच्छी तरह जानते हैं कि जबतक प्रात्मा के साथ एकत्व स्थापित न होगा, तबतक उससे परत्व बना ही रहेगा।
क्षयोपशम ज्ञान में आ जाने पर भी न मालूम क्यों हमें ऐसा लगता ही नहीं है कि जिस आत्मा के यहाँ गीत गाये जा रहे हैं, वह प्रात्मा मैं
यदि आत्मा में एकत्व स्थापित हो जाय तो आत्मा की चर्चा में कभी भी उकताहट न हो। आत्मा की चर्चा में होनेवाली उकताहट ही यह सूचित करती है कि अभी हमारा भगवान आत्मा में एकत्व स्थापित नहीं हुआ है । 'मैं ही स्वयं भगवान प्रात्मा हूँ'- ऐसी अहंबुद्धि जागृत नहीं हुई है।
यदि आपका अभिनन्दन समारोह हो रहा हो और अनेक वक्ता आपके गीत गा रहे हों, आपकी प्रशंसा में भाषण दे रहे हों तो आपको उकताहट नहीं होती। कहते हैं - 'भाई, बोलने दो, क्यों रोकते हो ?' चाहे सारी रात ही पूरी क्यों न हो जावे, पर अपनी प्रशंसा को सुनतेसुनते थकते नहीं है, पर आत्मा की चर्चा चल रही हो तो एक घंटे में दश बार घड़ी देखते हैं।