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गागर में सागर
४५ पोथियाँ पढ़-पढ़कर कोई भी व्यक्ति आजतक सच्चा पंडित अर्थात् आत्मज्ञानी नहीं बना है।
यदि हम इस भगवान प्रात्मा को न समझ सके, इसका अनुभव न कर सके तो सब-कुछ समझकर भी नासमझ ही हैं, सब-कुछ पढ़कर भी अपढ़ ही हैं, सब-कुछ अनुभव करके भी अनुभवहीन ही हैं, सब-कुछ पाकर भी अभी कुछ नहीं पाया है-यही समझना। अधिक क्या कहें ? समझदार को इशारा ही पर्याप्त होता है।
इस ७६वीं गाथा में प्रात्मा शरीर के साथ है (अंग साघ)कहकर तारणस्वामी ने वर्तमान में प्रात्मा की क्या स्थिति है- इसका ज्ञान कराया है, संयोग का ज्ञान कराया है, व्यवहार बताया है। पर साथ में यह कहकर कि मेरा यह प्रात्मा ही परमात्मा है, उस व्यवहार का निषेध कर दिया है, संयोग की वास्तविक स्थिति का ज्ञान करा दिया है:
यह सब कहकर वे यह कहना चाहते हैं कि वर्तमान में यह भगवान आत्मा देह-देवल में विराजमान है, पर इतना ध्यान रखना कि इस देह को ही भगवान आत्मा मत समझ लेना, देह तो देवालय है। इस देह-देवालय में जो ज्ञानानन्द स्वभावी जीव रहता है, भगवान आत्मा तो वह है।
यद्यपि यह आत्मा देह के संयोग में अनादि से ही है, तथापि ध्यान रखने की बात यह है कि देह के साथ रहकर भी यह देहरूप नहीं हो गया है, आत्मरूप ही रहा है ।
अबतक इस आत्मा ने स्वयं के नाम पर मात्र देह के ही दर्शन किए हैं, अबतक इसकी दृष्टि देह तक ही सीमित रही है, उसे भेदकर उसके भीतर विराजमान भगवान प्रात्मा तक नहीं पहुँची है। अत: स्वामीजी प्रेरणा देते हुए कहते हैं कि हे आत्मन् ! इस शरीर पर से दृष्टि हटाकर आत्मा की ओर ले जा।
पर कठिनाई यह है कि यह भगवान आत्मा शरीर के भीतर ही तो विराजमान है, शरीर ही में तो है। शरीर से दृष्टि हटाने पर तो दृष्टि
आत्मा से और भी दूर हो जावेगी। यदि शरीर पर ही दृष्टि केन्द्रित रखते हैं तो फिर शरीर पर ही जमी रहती है, आत्मा तक पहुँचती ही नहीं । अतः कुछ समझ में नहीं आता कि आखिर करें क्या ?