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गागर में सागर
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और भी देखो - भगवान महावीर का जीव जब स्वयं शेर की पर्याय में था तो कितना क्रूर था, कितना खूंख्वार था ? मृग को मारकर खा रहा था । कुछ मांसपिण्ड पेट में पहुँच गया था; पर कुछ अभी मुँह में ही था । ऐसी स्थिति में भी जब काल पक गया, तब बिना बुलाए ही दो चारण ऋद्धिधारी मुनिराज प्रकाश मार्ग से सहज ही उतर कर प्राये । उनकी भाषा से अपरिचित होने पर भी उनके संबोधन से शेर की समझ में सब कुछ आ गया । अन्दर में पात्रता हो तो भाषा कोई समस्या नहीं है । पात्रता ही पवित्रता की जननी है ।
क्रूर शेर ने भी क्रूरता छोड़ अपने आत्मा का अनुभव कर लिया । जब शेर जैसा क्रूर पशु भी अपनी आत्मा का अनुभव कर सकता है तो हम और आप क्यों नहीं कर सकते हैं ? जब पूंछवाला पशु कर सकता है तो क्या यह मूंछवाला आदमी नहीं कर सकता ? अवश्य कर सकता है । अन्तर की लगन चाहिए, लगनवाले को कुछ भी असंभव नहीं है । अतः इस पामरता के विचार को छोड़ो, इस कायरता के विकल्प को तोड़ो कि हम अनादिकालीन मिथ्यात्व को कैसे तोड़ सकते हैं, हम निज भगवान आत्मा का अनुभव कैसे कर सकते हैं ?
अहा, धन्य हैं वे वक्ता; धन्य है वह श्रोता, जिसने उनकी बात को जमीन पर नहीं पड़ने दिया । कैसी होगी वह सभा, जहाँ दो भावलिंगी संत वक्ता और एक क्रूर वनराज श्रोता; न पंडाल, न बिछायत !
जिन वक्ताओं को सभा में कम श्रोता देखकर चित्त में खिन्नता होती हो, उन्हें इस सार्थक सभा पर ध्यान देना चाहिए। वे हजारों श्रोता किस काम के; जो मात्र सुनते ही हैं, सुनकर समझते नहीं, तद्रूप परिणमन नहीं करते। वह एक श्रोता ही पर्याप्त है, जो मात्र सुनता ही नहीं, समझता भी है, तद्रूप परिणमन भी करता है ।
हमने तो जयपुर में श्री टोडरमल स्मारक भवन के हाल में, जहाँ प्रवचन करने बैठते हैं, उसके ठीक पीछे एक बड़ा चित्र लगा रखा है, जिसमें मृग को मारकर खाते हुए शेर को दो मुनिराज उपदेश दे रहे हैं। मैं तो हमेशा उसे दिखाकर अपने छात्रों को समझाया करता हूँ कि कदाचित् कहीं प्रवचनार्थं जाने पर कम श्रोता मिलें तो चित्त को चंचल न करना, निरुत्साहित न होना । इस चित्र को याद करना ।
भाई ! आत्मा के अनुभव की बात ही मुख्य है । जिस प्रवचनकार के प्रवचन में श्रात्महित की प्रेरणा न हो, श्रात्मानुभव करने पर बल न