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गाथा ८४ पर प्रवचन
यहाँ पर स्वामीजी उस आत्मा की बात कर रहे हैं, जिस पात्मा के आश्रय से सम्यग्दर्शन उत्पन्न होता है ।
यहाँ कोई कहे कि क्या अपना आत्मा भी अनेक प्रकार का होता है - श्रद्धा का जुदा. और ज्ञान का जुदा ?
उससे कहते हैं कि हाँ, होता है । ज्ञान के ज्ञेयरूप यात्मा में रागद्वैप भी हो सकते हैं, होते भी हैं; पर श्रद्धेय ग्रात्मा राग-द्वेषादि भावों से भिन्न ही होता है । ज्ञान प्रात्मा के स्वभाव एवं स्वभाव-विभाव सभी पर्यायों को भी जानता है; पर श्रद्धा मात्र स्वभाव में ही अपनत्व स्थापित करती है, एकत्व स्थापित करती है। अत: श्रद्धा का प्रात्मा मात्र स्वभावमय ही है।
इसका तात्पर्य तो यह हुया कि श्रद्धा का प्रात्मा जुदा है ग्रोर जान का प्रात्मा जुदा ?
हाँ, ऐसा ही है । अपेक्षा समझना चाहिए । बिना अपेक्षा समझे कुछ भी समझ में नहीं आवेगा ।
श्रद्धा का श्रद्धेय प्रात्मा राग-द्वेष-मोह से रहित स्वभावमात्र वस्तु है और ज्ञान के जेयरूप प्रात्मा में राग-द्वेपरूप विकार भी सम्मिलित होते हैं। ___मैं आपसे ही पूछता हूँ कि ससुराल वाले साल-साली हमारे हैं या नहीं ?
वे हमारे है भी और नहीं भी हैं । सम्बन्धी की अपेक्षा हैं और परिवार की अपेक्षा नहीं हैं।
यह वात मा श्राप लोग अच्छी तरह जानते हैं कि बुन्देलखण्ड में जव पंचकल्याणक होता है तो साथ में गजरथ भी चलाया जाता है । गजरथ चलानेवाले को सिंघई की पदवी दी जाती है। जिस व्यक्ति को सिंघई की पदवी दी जाती है, उसके सभी परिवारवाले भी सिंघई हो जाते हैं, पर ससुरालवाले सिंघई नहीं होत ।
ऐसा क्यों होता है - इस पर भी कभी ग्रापन विचार किया है ?
जो अपना नहीं है, उससे हम कितना ही गग क्यों न करें, राग करने मात्र में वह अपना नहीं हो जाता। जो अपना है, उससे हम कतना ही ढेप क्यों न करें, द्वेप करने मात्र में वह पराया नहीं हो