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गाथा ४४ पर प्रवचन
भी नहीं है । सर्वस्व समर्पण तो निज परमात्मा में ही संभव है, आवश्यक भी यही है !
जैसे लोक में देखा जाता है कि अपना बेटा कितना ही नालायक क्यों न हो, हम अपनी संपूर्ण सम्पत्ति उसे हो देकर मरना चाहते हैं । पराया बेटा कितना ही योग्य क्यों न हो, हम उसकी प्रशंसा तो दिल खोलकर कर सकते हैं, पर उसे अपनी संपूर्ण सम्पत्ति देने का भाव नहीं आता । देने का भाव भी श्रावे तो थोड़ी-बहुत देकर ही सन्तुष्ट हो जाते हैं ।
यह श्रात्मा लोक में तो कभी भूल नहीं करता है; पर अलौकिक मार्ग में भूल जाता है । अरे भाई ! पर-परमात्मा को पराये अच्छे बेटे की तरह मात्र प्रशंसा तक ही सीमित रखो, स्तुति-वन्दना तक ही सीमित रखो और अपने आत्मा को सर्वस्व समर्पण कर दो ।
जबतक निज भगवान आत्मा में एकत्व स्थापित नहीं होगा, तबतक उसमें सर्वस्व समर्पण भी नहीं होगा । जिसमें परत्व बुद्धि रहतो है, वह चाहे भगवान ही क्यों न हो; उसके प्रति वह बात नहीं होती है, जो अपने प्रति होती है ।
यही कारण है कि लोग अपने खाने के लिए दस रुपये किलो के चावल खरीदते हैं और भगवान को चढ़ाने के लिए तीन रुपये किलो के । बस यही व्यवहार अपने श्रात्मा के प्रति हो रहा है । शरीर में एकत्वबुद्धि होने से उसके लिए संपूर्ण जीवन समर्पित है और आत्मा के साथ सौतेले बेटे जैसा व्यवहार हो रहा है ।
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इसी बात को लक्ष्य में रखकर तारणस्वामी बार-बार "ममात्मा" कहकर निज भगवान प्रात्मा में एकत्व स्थापित करने की प्रेरणा देते हैं । अपने बेटे की उन्नति में जो आनन्द आता है, वह पड़ौसी के वेटे की तरक्की में नहीं; इसीप्रकार अपने प्रात्मा के शुद्ध होने में, अमल होने में जो आनन्द है, वह पर-परमात्मा की अमलता में नहीं ।
आध्यात्मिक रुचि के लिए अपने आत्मा में अपनत्व होना अत्यन्त आवश्यक है | ज्ञान का कार्य तो जो जैसा है, उसे मात्र वैसा ही जान लेना है । उसमें अपने-पराये का भेद करना श्रद्धा का कार्य है एवं प्रच्छे-बुरे की कल्पना राग-द्वेष की उपज है ।