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कोई सानी नहीं । अन्य प्रवचनों को भी इसी भांति प्रकाशित कर इस श्रंखला को आगे बढावें ।
- अखिल बंसल, एम. ए., जे. डी.,
सम्पादक
जिनवाणी (मासिक) जयपुर, फरवरी, १९८६ ई. ।
इस पुस्तक में डॉ. भारिल्ल के श्री तारण स्वामी विरचित 'ज्ञान- समुच्चयसार ग्रन्थ की ४४, ५९, ७६ व ८९७ गाथाओं पर दिये गये व्याख्यात्मक प्रवचनों के साथ-साथ 'भगवान महावीर और उनकी अहिंसा प्रवचन संकलित हैं । आध्यात्मिक स्फुरणा जगाने में इनसे बडी मदद मिलती है । इन प्रवचनों का मूल स्वर है आत्मा ही परमात्मा है, आत्मा का ध्यान ही सब ज्ञान का सार है ।
- डॉ. नरेन्द्र भानावत, सम्पादक
अहिंसावाणी (मासिक) अलीगंज, जनवरी-फरवरी, १९८६ ई. ।
कृति की भाषा सरल और शैली सुबोध, रोचक है, जिससे जन-साधारण आध्यात्मिक तत्वों को समझने में ऊबता नहीं, अपितु सहज समझता चलता है । यही इस कृति की विशेषता है । तत्व जिज्ञासुओं के लिए यह सुपाच्य मानसिक भोजन है । प्रकाशन श्रेष्ठता के लिए प्रसिद्ध है । गेटअप भी प्रतीक लिए हुए है ।
- डॉ. आदित्य प्रचडिया 'दीति'
तारण - बन्धु (मासिक) भोपाल, नवम्बर-दिसम्बर, १९८५ ई. ।
इस पुस्तक में 'ज्ञान- समुच्चयसार ग्रन्थ की चार गाथाओं पर डॉ. हुकमचन्दजी भारिल्ल के प्रवचन दिए गए हैं । ये प्रवचन जैनधर्म के मूल सिद्धान्तों और अध्यात्मवाद का ज्ञान कराते हैं, जो अध्यात्म रस पिपासुओं के लिए बहुत उपयोगी है । पुस्तक का कागज व छपाई उत्तम है ।
- ज्ञानचन्द जैन. बी. ए. एल. एल. बी.. सम्पादक