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________________ सम्पादकीय मनोगत आज श्री जिन तारणतरण स्वामी द्वारा विरचित न्यानसमुच्चयसार के मात्र गुणस्थान विभाग को सम्पादित करके आपके करकमलों में देने का पुण्यमय कार्य करने में सफल हो रहा हूँ; इसका मुझे आनन्द है । पुण्यमय नगरी सिलवानी के तारण समाज के आमंत्रण के अनुसार मैं सिलवानी के चैत्यालय में इसवी सन् २०१० के दशलक्षण पर्व में गया था। उस समय न्यानसमुच्चयसार ग्रन्थ का स्वाध्याय करने का सुअवसर मिला। इस पवित्र शास्त्र में मुझे गुणस्थान अधिकार पढ़ने को मिला। मुझे इस अधिकार को पढ़कर विशेष आनन्द हुआ। इसकारण इसका विशेष अध्ययन करने का मानस बनाया और अध्ययन भी किया। गुणस्थान विषय पढ़ाने का भाग्य जयपुर में संचालित श्री टोडरमल दि. जैन सिद्धान्त महाविद्यालय के विद्यार्थियों के साथ-साथ अनेक नगरों के जिज्ञासुओं को भी पढ़ाने का मौका मिलता ही रहता है। गुणस्थान संबंधी जानकारी अधिक विषदरूप से हो, इस भावना मैंने इस गुणस्थान के प्रकरण को संपादित किया है। मूल ग्रन्थ का विषय तो श्री जिन तारणतरण स्वामीजी का है और हिन्दी अनुवाद तथा टीका ब्र. शीतलप्रसादजी का है। मैंने मात्र संपादन का ही काम किया है। संपादन में नवीनता निम्नप्रकार है - १. विषय के अनुसार छोटे-छोटे अनुच्छेद बनाये हैं। २. विषय स्पष्ट हो, इस भावना से अक्षरों को छोटा-मोटा बनाया है । ३. जटिल / कठिन विषय सुलभ हों, इस भावना से अनेक स्थान पर १.२. आदि संख्या का प्रयोग किया है। कहीं हाथ का निशान या अन्य काले बिन्दू आदि का उपयोग किया है। ४. पाठकों की सुविधा के लिए और विषय की स्पष्टता के लिए कहींकहीं मैंने अन्य शास्त्रों के अनुसार अल्पसा लिखा है, उसे कंस में दिया है। ५. मूल गाथा और अन्वयार्थ तथा भावार्थ को हमने पूर्ववत् वही का वही रखा है। किंचित् मात्र भी बदला नहीं है । ६. गोम्मटसार की गाथाओं को न देकर उसका मात्र ब्र. शीतलप्रसादजी कृत अर्थ ही दिया है। ७. मूल गाथाओं का क्रमांक ग्रंथानुसार तो दिया ही है; साथ ही साथ मात्र गुणस्थान की गाथाओं का ज्ञान हो, इस भावना से १,२ इसप्रकार क्रम से नम्बर भी दिये हैं। संपादन के कार्य में ब्र. विमलाबेन जबलपुर एवं वाशिम निवासी श्री सागर जवलकर ने सहयोग दिया है, अतः धन्यवाद । (7) श्री जिन तारणतरण स्वामी विरचित चौदह गुणस्थान मिच्छा सासन मिस्रो, अविरै देसव्रत सुध संमिधं । (१) प्रमत्त अप्रमत्त भनियं, अपूर्वकरन सुध संसुधं ॥ ६५८ ॥ अनिवर्त सूक्ष्मवतो, उवसंत कषाय षीन सुसमिधो । (२) सजोग केवलिनो, अजोग केवली हंति चौदसमो ||६५९ ।। अन्वयार्थ - (मिच्छा सासन मिस्रो) १. मिथ्यात्व, २. सासादन, ३. मिश्र (अविरै देसव्रत सुध संमिधं) ४. अविरत सम्यग्दर्शन, ५. देशव्रत जो शुद्धता सहित है ( प्रमत्त अप्रमत्त भनियं) ६. प्रमत्त विरत, ७. अप्रमत्तविरत कहा गया है (अपूर्वकरन सुध संसुधं ) ८. अपूर्वकरण जो परम शुद्ध है (अनिवर्त सूक्ष्मवतो) ९. अनिवृत्तिकरण, १०. सूक्ष्मलोभ (उवसंत कषाय क्षीन सुसमिधो) ११. उपशांत कषाय १२. क्षीणकषाय जहाँ कषाय भले प्रकार क्षय हो गई हैं (सजोग केवलिनो) १३. सयोग केवली जिन (अजोग केवली हुंति चौदसमो) १४. अयोग केवली जिन चौदहवाँ गुणस्थान है। भावार्थ - • मोहनीय कर्म और योग के सम्बन्ध से चौदह गुणस्थान हैं। • दसवें गुणस्थान तक मोह और योग दोनों का सम्बन्ध है । • ग्यारहवें से तेरहवें - इन तीनों गुणस्थानों का मात्र योग के साथ ही सम्बन्ध है। • चौदहवें गुणस्थान में योग भी चंचल नहीं है। • पहले पाँच गुणस्थान परिग्रहधारियों के होते हैं। • छठे से बारहवें तक परिग्रह त्यागी निर्ग्रथ साधुओं के गुणस्थान होते हैं। • तेरहवाँ, चौदहवाँ गुणस्थान अरहंत केवली भगवान के ही होते हैं। • सिद्ध भगवान सर्व गुणस्थानों से बाहर हैं। श्री गोम्मटसार जीवकांड में कहा है - "दर्शन मोहनीयादि कर्मों के उदय, उपशम, क्षय, क्षयोपशम आदि अवस्था के होने पर होने वाले परिणामों से युक्त जो जीव होते हैं, उन
SR No.009448
Book TitleChaudaha Gunsthan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad, Yashpal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2012
Total Pages27
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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