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________________ २०२. विकारी भावों का परित्याग एवं उदात्त भावों का ग्रहण ही दशलक्षण धर्म का आधार है। २०३. उत्तमक्षमा आदि का नाप बाहर से नहीं किया जा सकता । २०४. क्रोध मानादि को हटाना क्षमा है, दबाना नहीं । २०५. क्षमा कायरता नहीं, क्षमाधारण करना कायरों का काम भी नहीं । २०६. ज्ञानानंदस्वभावी आत्मा की अरुचि ही अनंतानुबंधी क्रोध है । २०७. क्रोधादि जब भी होते हैं, परलक्ष्य से ही होते हैं । २०८. प्रतिकूलता में क्रोध और अनुकूलता में मान आता है। २०६. क्रोधी वियोग चाहता है; पर मानी संयोग । २१०. असफलता क्रोध और सफलता मान की जननी है। २११. निंदा की आँच जिसे पिघला भी नहीं पाती, प्रशंसा की ठंडक उसे छार-छार कर देती है । २६
SR No.009447
Book TitleBindu me Sindhu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla, Yashpal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages41
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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