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________________ १०२. चाह स्वयं दुःखरूप है, चाह का अभाव ही सुख है। १०३. संयोगों में सुख खोजना समय और शक्ति का अपव्यय है। १०४. स्वभावदृष्टिवन्त ही वस्तुतः सुखी होता है। १०५. सुखी होने का सही रास्ता सत्य पाना है, सत्य समझना है। १०६. मूढ़भाव अनन्त आकुलता का कारण है। १०७. संयोगाधीन दृष्टि संसारदुःखों का मूल है। १०८. आत्मीय सद्गुणों में अनुराग को भक्ति कहते हैं। १०६. पूजा-भक्ति का सच्चा लाभ तो विषय-कषाय से बचना है। ११०. विषयों की आशा से भगवान की भक्ति करनेवाला भगवान का भक्त नहीं, भोगों का भिखारी है। १११. अन्य दर्शनों की अहिंसा जहाँ समाप्त होती है, जैनदर्शन की अहिंसा वहाँ से आरम्भ होती है। .. ११२. वस्तुतः अहिंसा तो वीतराग परिणति का नाम है।
SR No.009447
Book TitleBindu me Sindhu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla, Yashpal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages41
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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