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________________ 16 बिखरे मोती इस संदर्भ में वे साफ-साफ लिखते हैं - "सोलस सै बानवै लौं कियौ नियत-रस-पान ॥ पै कबीसुरी सब भई, स्यादवाद-परवान ॥६२९॥" संवत् सोलह सौ बानवे में ४९ वर्ष की अवस्था में पण्डित श्री रूपचन्दजी पाण्डे का समागम हुआ। उनसे गोम्मटसार पढ़ कर गुणस्थानुसार (भूमिकानुसार) आचरण का ज्ञान हुआ और कविवर की परिणति स्याद्वादानुसार सम्यक् हुई। इसके बाद उन्होंने 'समयसार नाटक' की रचना की। उनकी रचनाएँ चाहे परिणति सम्यक् होने के बाद की हों, चाहे पहिले की; पर उनकी प्रामाणिकता में कोई संदेह की गुंजाइस नहीं है – इस बात का उल्लेख करते हुए वे कहते हैं - "तब फिरि और कबीसुरी, करी अध्यातम माँहि ॥ यह वह कथनी एक सी, कहुँ विरोध किछु नांहि ॥६३६ ॥ हृदै मांहि कछु कालिमा, हुती सरहदन बीच ॥ सोऊ मिटि समता भई, रही न ऊंच न नीच ॥६३७॥ अब सम्यक् दरसन उनमान। प्रगट रूपजानै भगवान ॥ सोलह सै तिरानवै वर्ष। समैसार नाटक धरि हर्ष ।। ६३८॥ इसके बाद वे सात-आठ वर्ष और जिए, जिसमें उनका जीवन एकदम शुद्ध सात्त्विक रहा, आध्यात्मिक साधना-आराधना में लगा रहा। लगभग सत्तावन वर्ष की उम्र में उनका स्वर्गवास हुआ। इसप्रकार १२ वर्ष के निश्चयाभासी और ८ वर्ष के सम्यग्ज्ञानमय अनैकान्तिक जीवन में अर्थात् जीवन के अन्तिम बीस वर्षों में उनके द्वारा जो भी सत्साहित्य का निर्माण और आध्यात्मिक क्रान्ति हुई, उसने दिगम्बर व श्वेताम्बर दोनों ही जैन सम्प्रदायों में समागत शिथिलता, मंत्रतंत्रवाद एवं अनावश्यक क्रिया-काण्ड को झकझोर दिया। इसकारण उनके अध्यात्मवाद का दोनों ओर से घोर विरोध हुआ। श्वेताम्बर यतियों और दिगम्बर भट्टारकों ने उनकी आध्यात्मिक क्रान्ति का डटकर विरोध किया, पर उसके प्रबल-प्रवाह को अवरुद्ध न कर सके। श्वेताम्बर सम्प्रदाय में यशोविजयजी ने बनारसीदासजी के स्वर्गवास के लगभग आठ-दश वर्ष बाद ही 'अध्यात्ममत परीक्षा', 'अध्यात्ममत खण्डन'
SR No.009446
Book TitleBikhare Moti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla, Yashpal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2001
Total Pages232
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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