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जैनदर्शन का तात्त्विक पक्ष : वस्तुस्वातन्त्र्य ध्रौव्य नित्यता का। प्रत्येक पदार्थ उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य से युक्त है। अत: वह द्रव्य है। द्रव्य गुण और पर्यायवान होता है। जो द्रव्य के सम्पूर्ण भागों और समस्त अवस्थाओं में रहे, उसे गुण कहते हैं । तथा गुणों के परिणमन को पर्याय कहा जाता है
प्रत्येक द्रव्य में अनन्त गुण होते हैं जिन्हें दो भागों में वर्गीकृत किया जाता है - सामान्यगुण और विशेषगुण। सामान्यगुण सब द्रव्यों में समान रूप से छह पाये जाते हैं और विशेषगुण अपने-अपने द्रव्य में पृथक्-पृथक् होते हैं।
सामान्यगुण भी अनंत होते हैं और विशेष गुण भी अनंत । अनन्त गुणों का कथन तो सम्भव नहीं है। अतः सामान्य गुणों का वर्णन शास्त्रों में इसप्रकार मिलता है -
अस्तित्व, वस्तुत्व, द्रव्यत्व, प्रमेयत्व, अगुरुलघुत्व और प्रदेशत्व।
प्रत्येक द्रव्य की सत्ता अपने अस्तित्व गुण के कारण है न कि पर के कारण। इसीप्रकार प्रत्येक द्रव्य में एक द्रव्यत्व गुण भी है, जिसके कारण प्रत्येक द्रव्य प्रति समय परिणमित होता है; उसे अपने परिणमन में पर से सहयोग की अपेक्षा नहीं रहती है। अत: कोई भी अपने परिणमन में परमुखापेक्षी नहीं है। यही उसकी स्वतन्त्रता का आधार है। अस्तित्व गुण प्रत्येक द्रव्य की सत्ता का आधार है और द्रव्यत्वगुण परिणमन का। अगुरुलघुत्वगुण के कारण एक द्रव्य का दूसरे में प्रवेश संभव नहीं है। ___ सद्भाव के समान अभाव भी वस्तु का धर्म है। कहा भी है - 'भवत्यभावोऽपि च वस्तु धर्माः' अभाव चार प्रकार का माना गया है - प्रागभाव, प्रध्वंसाभाव, अन्योन्याभाव और अत्यन्ताभाव।
एक द्रव्य का दूसरे द्रव्य में अत्यन्ताभाव होने के कारण भी उसकी स्वतंत्रता सदाकाल अखण्डित रहती है जहाँ अत्यन्ताभाव द्रव्यों की स्वतंत्रता की दुंदुभि बजाते हैं।
जैनदर्शन के स्वातन्त्र्य सिद्धान्त के आधारभूत इन सब विषयों की चर्चा जैनदर्शन में विस्तार से की गई है। इनकी विस्तृत चर्चा करना यहाँ न तो संभव है और न अपेक्षित। जिन्हें जिज्ञासा हो, जिन्हें जैनदर्शन का हार्द जानना हो, उन्हें उसका गंभीर अध्ययन करना चाहिए। १. आचार्य उमा स्वामी : तत्त्वार्थ सूत्र, अध्याय ५, सूत्र ३८