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________________ बिखरे मोती पण्डित जयचंदजी छाबड़ा ने अपनी प्रस्तावना में स्पष्ट लिखा है - "भद्रबाहुस्वामी की परम्परा में ही दूसरे गुणधर नामक मुनि हुए। उनको ज्ञानप्रवाद पूर्व के दसवें वस्तु अधिकार में तीसरे प्राभृत का ज्ञान था। उनसे उस प्राभृत को नागहस्ती नामक मुनि ने पढ़ा। उन दोनों मुनियों से यति नामक मुनि ने पढ़कर उसकी चूर्णिका रूप में छह हजार सूत्रों के शास्त्र की रचना की, जिसकी टीका समुद्धरण नामक मुनि ने बारह हजार सूत्रप्रमाण की। इसप्रकार आचार्यों की परम्परा से कुन्दकुन्द मुनि उन शास्त्रों के ज्ञाता हुए। -इसतरह इस द्वितीय सिद्धान्त की उत्पत्ति हुई।। इसप्रकार इस द्वितीय सिद्धान्त की परम्परा में शुद्धनय का उपदेश करनेवाले पंचास्तिकाय, प्रवचनसार, समयसार, परमात्मप्रकाश आदि शास्त्र हैं; उनमें समयप्राभृत नामक शास्त्र प्राकृत भाषामय गाथाबद्ध है, उसकी आत्मख्याति नामक संस्कृत टीका श्री अमृतचन्द्राचार्य ने की है।" उक्त सम्पूर्ण कथनों से यह बात अत्यन्त स्पष्ट हो जाती है कि आचार्य कुन्दकुन्द को भरतक्षेत्र में विद्यमान भगवान महावीर की आचार्य परम्परा से जुड़ना ही अभीष्ट है । वे अपनी बात की प्रामाणिकता के लिए भगवान महावीर और अन्तिम श्रुतकेवली भद्रबाहु की आचार्यपरम्परा पर ही निर्भर हैं। ___ यह सब स्पष्ट हो जाने पर भी यह प्रश्न चित्त को कुदेरता ही रहता है कि जब उन्होंने सर्वज्ञदेव सीमन्धर भगवान के साक्षात् दर्शन किए थे, उनका सदुपदेश भी सुना था तो फिर वे स्वयं को उनसे क्यों नहीं जोड़ते? न भी जोड़ें तो भी उनका उल्लेख तो किया ही जा सकता था, उनका नामोल्लेख-पूर्वक स्मरण तो किया ही जा सकता था? उक्त शंकाओं के समाधान के लिए हमें थोड़ा गहराई में जाना होगा। आचार्य कुन्दकुन्द बहुत ही गम्भीर प्रकृति के निरभिमानी जिम्मेदार आचार्य थे। वे अपनी जिम्मेदारी को भलीभांति समझते थे; अतः अपने थोड़े से यशलाभ के लिए वे कोई ऐसा काम नहीं करना चाहते थे, जिससे सम्पूर्ण आचार्यपरम्परा व दिगम्बर दर्शन प्रभावित हो। यदि वे ऐसा कहते कि मेरी बात इसलिए मा..कि है; क्योंकि मैंने सीमन्धर परमात्मा के साक्षात् दर्शन किए हैं, उनकी
SR No.009446
Book TitleBikhare Moti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla, Yashpal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2001
Total Pages232
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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