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अन्यत्वभावना : एक अनुशीलन
हो जाता है और न देह जीव; संयोगीदशा में भी जीव जीव रहता है और देह देह । वस्तुतः वे मिलते ही नहीं, मात्र मिले दिखते हैं; क्योंकि किसी में मिलना उनका स्वभाव ही नहीं है। किसी में मिलने में स्वयं को मिटा देना पड़ता है
और कोई वस्तु स्वयं को कभी मिटा नहीं सकती है। वस्तु ही उसे कहते हैं, जो कभी मिटे नहीं, सदा सत्रूप ही रहे। अतः कोई वस्तु किसी में कभी मिलती नहीं, मात्र मिली कही जाती है। यही कारण है कि जीव में देह कभी मिलती नहीं, एकक्षेत्रावगाहरूप संयोग देखकर मात्र मिले कहे जाते हैं, हैं तो वे परस्पर अत्यन्त भिन्न-भिन्न ही।
इस सत्य के गहरे मंथन का नाम ही अन्यत्वभावना है। इसी की सम्यक जानकारी के लिए कहा गया है -
'जल-पय ज्यों जिय-तन मेला, पै भिन्न-भिन्न नहिं भेला।' विभिन्न संयोगों के मेले में खोये निज शुद्धात्मतत्त्व को खोजना, पहिचानना, पाना, उसे सबसे भिन्न निराला जानना, उसका ही सदा चिन्तन करना, उसकी ही भावना भाना, उसी का ध्यान करना, उसी में जमना-रमना, उसी में लीन हो जाना, विलीन हो जाना, उसी में सम्पूर्णतः समा जाना ही अन्यत्वभावना के चिन्तन का मूल प्रयोजन है; क्योंकि इस भवसागर से पार होने कासंसरणरूप संसारदुःखों से छूटने का एकमात्र यही उपाय है, समस्त शास्त्रों का यही सार है। आचार्य योगीन्दुदेव भी यही प्रेरणा देते हैं - "पुग्गलु अण्णु जि अण्ण जिउ, अणु वि सहु ववहारु।
चयहि वि पुग्गलु गहहि जिउ, लहु पावहि भवपारु॥ पुद्गल अन्य है, जीव अन्य है, अन्य सब व्यवहार भी अन्य है; अतः हे आत्मन्! तू पुद्गल को छोड़ और अपने आत्मा को ग्रहण कर, इससे तू शीघ्र ही संसार से पार होगा।
१. योगसार दोहा ५५