________________
७८
अन्यत्वभावना : एक अनुशीलन
निश्चयनय से जीव और देह कदापि एक नहीं हो सकते । "
जब जिनवाणी में व्यवहार से ही सही, जीव और शरीर को एक कहा गया है तो उसे वैसे ही तो नहीं उड़ाया जा सकता। व्यवहारनय से कथित जीव और शरीर की एकता का वास्तविक स्वरूप क्या है ? - यह बात भलीप्रकार समझे बिना उनकी परस्पर पारमार्थिक भिन्नता भी सही रूप में समझ में नहीं आ सकती।
जीव और देह की पारमार्थिक भिन्नता समझने के लिए पहले उनकी व्यावहारिक एकता की वास्तविक स्थिति जानना आवश्यक है, अन्यथा व्यवहारिक एकता की तात्कालिक उपयोगिता के साथ-साथ स्वाभाविक भिन्नता का भी भलीभाँति परिचय प्राप्त नहीं होगा, पारमार्थिक प्रयोजन की भी सिद्धि नहीं होगी अतः देह और आत्मा की पारमार्थिक भिन्नता के साथ-साथ व्यावहारिक एकता का ज्ञान भी आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य है; पर ध्यान रहे इनकी पारमार्थिक भिन्नता तो भिन्नता जानने के लिए है ही, व्यावहारिक एकता का स्वरूप जानना भी पारमार्थिक भिन्नता जानने के लिए ही है । अन्यत्वभावना में मूलभूत प्रयोजन पर से अन्यत्व है, एकत्व नहीं । व्यावहारिक एकता को तो प्रयोजनपुरतः मात्र जान लेना है, वहाँ जमना नहीं है; रमना नहीं है; पर पारमार्थिक भिन्नता को तो जानना भी है, मानना भी है और पर से भिन्न निज में जमना भी है. रमना भी है, निज में ही समा जाना है।
1
पर से भिन्न निज में समा जाना ही वास्तविक अन्यत्वभावना है। छहढाला के उक्त कथन में ' जल-पय ज्यों जिन-तन मेला' कहकर जीव और शरीर की एकता की वास्तविक स्थिति स्पष्ट की गई है और 'पै भिन्न-भिन्न नहिं भेला' कहकर पारमार्थिक भिन्नता स्पष्ट कर दी गई है।
उक्त पद में बहुत गहरी बात कही गई है कि जीव और शरीर की एकता वास्तविक एकता नहीं; मात्र मिलावट है, मेला है।
जिसप्रकार मेले में विभिन्न प्रकार के लोग सर्वप्रकार से भिन्न-भिन्न होकर भी एकत्रित हो जाते हैं; उनके एकत्रित हो जाने से वे एक नहीं हो जाते, भिन्न