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एकत्वभावना : एक अनुशीलन
एकत्वभावना के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए ब्रह्मदेव लिखते हैं -
"निश्चयरत्नत्रय ही जिसका एक लक्षण है - ऐसी एकत्वभावना रूप से परिणमित इस जीव के सहजानन्तसुखादि अनन्त गुणों का आधारभूत केवलज्ञान ही एक सहज शरीर है। यहाँ शरीर शब्द का अर्थ स्वरूप है, सप्तधातुमय औदारिकादि शरीर नहीं। ___ इसीप्रकार आर्त्त-रौद्र दुर्ध्यान से विलक्षण परमसामायिक जिसका लक्षण है - ऐसी एकत्वभावना से परिणमित निजात्मतत्त्व ही सदा एक शाश्वत परमहितकारी बन्धु है; विनश्वर और अहितकारी पुत्र-स्त्री आदि नहीं।
इसीप्रकार परम-उपेक्षासंयम जिसका लक्षण है - ऐसी एकत्वभावना सहित स्वशुद्धात्मपदार्थ एक ही अविनाशी और हितकारी परम-अर्थ है; सुवर्णादि पदार्थ अर्थ नहीं। ___ इसीप्रकार निर्विकल्प समाधि से उत्पन्न निर्विकार परमानन्द जिसका लक्षण है-ऐसे अनाकुलस्वभावयुक्त आत्मसुख ही एक सुख है; आकुलता का उत्पादक इन्द्रियसुख नहीं। __ यदि कोई यह कहे कि शरीर, बन्धुजन, सुवर्णादि अर्थ एवं इन्द्रियसुख आदि निश्चय से जीव के नहीं हैं - यह कैसे कहा जा सकता है?
उससे कहते हैं कि मरण समय जीव अकेला ही दूसरी गति में जाता है, शरीरादि जीव के साथ नहीं जाते।
तथा जब जीव रोगों से घिर जाता है, तब भी विषय-कषायादि दुर्ध्यान से रहित निज शुद्धात्मा ही सहायक होता है। ___ यदि कोई कहे कि रोगादि की अवस्था में शुद्धात्मा किसप्रकार सहायक होता है; क्या उससे रोगादि मिट जाते हैं? ___ उससे कहते हैं कि रोगादि के मिटने की बात नहीं है; अपितु यदि चरमशरीर हो तो शुद्धात्मा की आराधना से उसी भव में केवलज्ञानादि को प्रगटतारूप मोक्ष प्राप्त होता है और यदि चरमशरीर न हो तो संसार की स्थिति