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________________ ५४ ____ संसारभावना : एक अनुशीलन मर्यादा है। चूंकि चतुर्गति भी संयोगरूप ही हैं या फिर जीव के भावों की अपेक्षा संयोगीभावरूप हैं; अत: संसारभावना में उनका वर्णन सहज ही आ जाता है। यहाँ एक प्रश्न यह भी सम्भव है कि संयोगों की चर्चा तो अनित्यअशरणभावनाओं में भरपूर आ चुकी है; अत: संसारभावना में भी उसी के बारे में सोचते रहना कहाँ तक उचित है? भाई! अनित्य और अशरणभावना की चिन्तन-प्रक्रिया से संसारभावना की चिन्तन-प्रक्रिया भिन्न है। बारह भावनाओं में मूलभूत अन्तर परस्पर चिन्तनप्रक्रिया का ही है। उसे समझे बिना इसीप्रकार के और भी अनेकों प्रश्न उठ सकते हैं। अनित्यभावना में संयोगों की क्षणभंगुरता, अशरणभावना में संयोगों की अशरणता एवं संसारभावना में उन्हीं संयोगों की निरर्थकता बताई जाती है। जैसा कि पहले बताया जा चुका है कि इन भावनाओं की चिन्तन-प्रक्रिया में क्रमिक विकास है। बारह भावनाओं के चिन्तन का एकमात्र उद्देश्य दृष्टि को संयोगों पर से हटाकर स्वभाव की ओर ले जाना है; क्योंकि संयोगीभावरूप संसार की उत्पत्ति-वृद्धि संयोगाधीन दृष्टि का ही परिणाम है। जबतक इस जीव की दृष्टि संयोगों पर रहेगी, तबतक मोह-राग-द्वेषरूप संयोगीभाव उत्पन्न होते ही रहेंगे। मोह-राग-द्वेष भाव के अतिरिक्त और संसार है ही क्या? इसप्रकार यह सिद्ध है कि संयोगाधीन दृष्टि ही संसार का कारण है। ___ यदि हमें भवदुःख से बचना है तो संयोगाधीन दृष्टि का त्याग करना ही होगा। बारह भावनाओं की चिन्तन-प्रक्रिया भी इसी दृष्टि से पल्लवित हुई है। जिसप्रकार अनित्यभावना में संयोगों की अनित्यता के साथ-साथ स्वभाव की नित्यता का भी चिन्तन किया जाता है, अशरणभावना में संयोगों की अशरणता के साथ-साथ स्वभाव की शरणभूतता का भी चिन्तन किया जाता है; उसीप्रकार संसारभावना में भी संयोगों की असारता के साथ-साथ स्वभाव की सारभूतता का भी भरपूर चिन्तन किया जाता है।
SR No.009445
Book TitleBarah Bhavana Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages190
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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