SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 58
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ संसारभावना : एक अनुशीलन राज-समाज महा अघकारण बैर बढ़ावनहारा। वेश्या सम लक्ष्मी अति चंचल याका को पतियारा॥ मोह महारिपु बैर विचार्यो जग जिय संकट डारे। गृहं कारागृह वनिता बेड़ी परिजन जन रखवारे॥ सम्यक् दर्शन ज्ञान चरण तप ये जिय के हितकारी। ये ही सार असार और सब यह चक्री चितधारी॥" इसी वैराग्यभावना में समागत संसार के स्वरूप का सजीव चित्र उपस्थित करनेवाली निम्नांकित पंक्तियाँ भी द्रष्टव्य हैं - "सुरगति में परसम्पति देखे राग-उदय दुख होई। मानुष योनि अनेक विपतिमय सर्वसुखी नहिं कोई॥ कोई इष्ट-वियोगी बिलखै कोई अनिष्ट-संयोगी। कोई दीन दरिद्री बिगूचे, कोई तन के रोगी॥ किस ही घर कलिहारी नारी के बैरी सम भाई। किस ही के दुख बाहिर दीखै किस ही उर दुचिताई। कोई पुत्र बिना नित झूरै होय मरै तब रोवै। खोटी संतति सों दुख उपजै क्यों प्राणी सुख सोवै? पुण्य उदय जिनके तिनके भी नाहिं सदा सुख साता। यह जगवास जथारथ देखे सब दीखै दुखदात॥ जो संसार वि सुख होता तीर्थंकर क्यों त्यागैं? काहे को शिव-साधन करते संजम सौं अनुरागैं?" अरे भाई! जरा विचार तो करो कि यदि इस चतुर्गति-भ्रमणरूप संसार में सुख होता तो तीर्थंकर जैसे पुण्यवंत महापुरुष इसे छोड़कर क्यों चले जाते, संयम धारण कर मुक्ति प्राप्त करने का पुरुषार्थ क्यों करते? संयोगों में सुख खोजना समय और शक्ति का अपव्यय है। जिसप्रकार कितना ही मंथन क्यों न करो, पानी में से नवनीत निकलना सम्भव नहीं है; १. पण्डित नैनसुखदास कृत वैराग्यभावना
SR No.009445
Book TitleBarah Bhavana Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages190
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy