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संसारभावना : एक अनुशीलन
मंथन करे दिन-रात जल घृत हाथ में आवे नहीं । रज - रेत पेले रात-दिन पर तेल ज्यों पावे नहीं ॥ सद्भाग्य बिन ज्यों संपदा मिलती नहीं व्यापार में । निज आतमा के भान बिन त्यों सुख नहीं संसार में ॥ ३ ॥
जिसप्रकार जल का मंथन चाहे रात-दिन ही क्यों न करें, पर उसमें से घी की प्राप्ति सम्भव नहीं है; इसीप्रकार रेत को रात-दिन ही क्यों न पेलें, पर उसमें से तेल का निकलना सम्भव नहीं है तथा जिसप्रकार सद्भाग्य के बिना व्यापार में सम्पत्ति की प्राप्ति संभव नहीं है । उसीप्रकार निज आत्मा को जाने बिना संसार में सुख की प्राप्ति सम्भव नहीं है।
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यह एक ऐसा महासत्य है; जिसके जाने बिना संसार से विरक्ति और आत्मसन्मुख दृष्टि होना संभव नहीं है।
संसार है पर्याय में निज आतमा ध्रुवधाम है । संसार संकटमय परन्तु आतमा सुखधाम है ॥ सुखधाम से जो विमुख वह पर्याय ही संसार है । ध्रुवधाम की आराधना आराधना का सार है ॥ ४ ॥
संसार तो मात्र अध्रुव पर्याय में है, निज ध्रुवधाम आत्मा में नहीं है। यद्यपि संसार संकटमय है; तथापि आत्मा तो सुख का धाम ही है। इस सुख के धाम आत्मा से जो पर्याय विमुख है, वही पर्याय वस्तुतः संसार है और ध्रुवधाम निज भगवान आत्मा की आराधना ही आराधना का सार है।
धर्म का आरम्भ भी आत्मानुभूति से ही होता है और पूर्णता भी इसी की पूर्णता में। इससे परे धर्म की कल्पना भी नहीं की जा सकती। आत्मानुभूति ही आत्मधर्म है। साधक के लिए एकमात्र यही इष्ट है। इसे प्राप्त करना ही साधक का मूल प्रयोजन है। मैं कौन हूँ, पृष्ठ १०
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