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अशरणभावना : एक अनुशीलन
अशरणभावना को असहायभावना नाम से भी कहा गया है। एक प्राचीन गुटका में किसी अज्ञात लेखक की लिखी एक बारह भावना मिली है, जिसमें अनित्य और अशरणभावना का स्वरूप इसप्रकार दिया गया है -
"करमयोग पुद्गल मिलनि, थावर जंगम देह। इनको टि समुझे नहीं, अथिर भावना एह॥ गुन परखे सत्ता लखै, दरवदृष्टि ठहराय।
परसहाय माने नहीं, यहै भाव असहाय॥ कर्मोदय के योग से प्राप्त स्थूल देह एवं अन्य संयोगों को स्थिर नहीं समझना ही अनित्यभावना है। ___ अपने गुणों को पहचाने, सत्ता को देखे - अनुभव करे, द्रव्यदृष्टि के विषय में स्थिर हो जावे; एक द्रव्य दूसरे द्रव्य की सहायता नहीं कर सकता - यह स्वीकार करे - यही भाव अशरण भावना है।"
उक्त छन्दों में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण बात यह है कि इनमें बारह भावनाओं का चिन्तन न करके उनको परिभाषित किया गया है, उनका स्वरूप समझाया गया है। जैसे प्रथम छन्द का अन्तिम पद है-'अथिर भावना एह'। ऐसा ही प्रयोग प्रायः प्रत्येक छन्द में पाया जाता है। ___ उक्त दृष्टि से यदि अशरणभावना सम्बन्धी छन्द के अन्तिम पद पर ध्यान .. दें तो वहाँ कहा गया है कि 'यहै भाव असहाय'-यह असहाय भावना है। 'भावना' के स्थान पर 'भाव' शब्द का प्रयोग छन्दानुरोध से हुआ है। इसप्रकार के प्रयोग अन्य भावना सम्बन्धी छन्दों में भी हुए हैं। जैसे अनित्यभावना को अथिरभावना और संसारभावना को जगतभावना कहा गया है-ये सभी प्रयोग छन्दानुरोधवश ही हुए हैं। ___ अशरण अहस्तक्षेप का सूचक है। किसी भी द्रव्य के परिणमन में किसी अन्य द्रव्य का रंचमात्र भी हस्तक्षेप नहीं चलता। कोई व्यक्ति कितना ही शक्तिशाली क्यों न हो, वह अन्य द्रव्य के परिणमन में हस्तक्षेप नहीं कर सकता।
१. बारह भावना संग्रह, पृष्ठ २६