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अनुप्रेक्षा : एक अनुशीलन आध्यात्मिक कविवर पण्डित भागचन्दजी ने एक छन्द में बारह भावनाओं का स्वरूप इसप्रकार प्रस्तुत किया है - "जग है अनित्य तामैं सरन न वस्तु कोय;
तारौं दुःखरासि भववास कौं निहारिए । एक चित् चिह्न सदा भिन्न परद्रव्यनि तें;
अशुचि शरीर में न आपाबुद्धि धारिए ॥ रागादिक भाव करै कर्म को बढ़ावै ताते;
संवरस्वरूप होय कर्मबन्ध डारिए । तीनलोक माँहिं जिनधर्म एक दुर्लभ है।
तारौं जिनधर्म को न छिनहू विसारिए ॥" उक्त छन्द पर एक गहरी दृष्टि डालने पर स्पष्ट प्रतिभासित होता है कि इसमें बारह भावनाओं के चिन्तन की मूलधारा पूर्णतः समाहित है।
बारह भावनाओं में समाहित चिन्तनप्रक्रिया में जो क्रमिक विकास दिखाई देता है; उसमें रंचमात्र भी कृत्रिमता नहीं है। ___ पुत्र-परिवार, कंचन-कामिनी एवं देह में रत जगत को इन संयोगों की क्षणभंगुरता, अशरणता, असारता आदि के परिज्ञान की हेतुभूत बारह भावनाओं की चिन्तनप्रक्रिया अपने आप में अद्भुत है। ___ अनित्यभावना में यह बताया जाता है कि जिन संयोगों में तू सदा रहना चाहता है; वे क्षणभंगुर हैं, अनित्य हैं । पुत्र-परिवार और कंचन-कामिनी तेरे साथ सदा रहनेवाले नहीं; या तो ये तुझे छोड़कर चल देंगे या फिर तू ही जब मरण को प्राप्त होगा, तब ये सब सहज ही छूट जावेंगे।
- इस बात को सुनकर यह रागी प्राणी इनकी सुरक्षा के अनेक उपाय करता है। जब यह अपने मरणादि को टालने के उपायों का विचार करता है, तब अशरणभावना में यह बताया जाता है कि वियोग होना संयोगों का सहज