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धर्मभावना : एक अनुशीलन
__इसीप्रकार का भाव आचार्य कुन्दकुन्द ने द्वादशानुप्रेक्षा में भी व्यक्त किया है। धर्मभावना में वे कार्तिकेयानुप्रेक्षा के समान ही श्रावक और मुनिधर्म का वर्णन करने के उपरान्त लिखते हैं -
"णिच्छयणएण जीवो सागारणगारधम्मदो भिण्णो।
मज्झत्थभावणाए सुद्धष्पं चिंतये णिच्चं॥ निश्चयनय से यह आत्मा श्रावकधर्म और मुनिधर्म दोनों से ही भिन्न है; अतः मध्यस्थभाव से एक शुद्धात्मा का ही सदा चिन्तवन करना चाहिए।" '. ज्ञानानन्दस्वभावी निज भगवान शुद्धात्मा की आराधना ही वास्तविक धर्म है, निश्चयधर्म है; इसके बिना किया गया सर्व क्रियाकाण्ड निष्फल है, किंचित् मात्र भी कार्यकारी नहीं है - इस तथ्य का चिन्तन भी धर्मभावना में भरपूर किया जाता है। इस सन्दर्भ में कविवर बुधजन कृत बारह भावना का निम्नांकित छन्द द्रष्टव्य है -
"जिय हान-धोना तीर्थ जाना धर्म नाहीं जप-जपा। तन नग्न रहना धर्म नाहीं धर्म नाहीं तप-तपा॥ वर धर्म निज आतमस्वभावी ताहि बिन सब निष्फला।
बुधजन धर्म निज धार लीना तिनहिं कीना सब भला॥ जीव का धर्म नहाना-धोना, तीर्थयात्रा करना, जप-तप करना, नग्नतन रहना नहीं है। श्रेष्ठ धर्म तो आत्मस्वभाव की रमणता ही है; उसके बिना नहानाधोना, तीर्थयात्रा करना, जप-तप करना, नग्न रहना सभी निष्फल हैं, अकार्यकारी हैं । महाकवि बुधजन कहते हैं कि वही बुद्धिमान है - विद्वान है, जिसने निजात्मा की आराधनारूप निजधर्म धारण कर लिया है; उसने ही अपना और पराया सबका भला किया है।"
इसीप्रकार का भाव पंडित सदासुखदासजी ने भी व्यक्त किया है, जो इसप्रकार है -
१. बारस अणुवेक्खा, गाथा ८२