________________
बोधिदुर्लभ भावना : एक अनुशीलन
हिन्दी कवियों ने भी इसप्रकार के प्रयोग बहुत किये हैं, जिनमें कुछ
इसप्रकार हैं -
-
१५२
" अंतिम ग्रीवक लों की हद, पायो अनंत बिरियाँ पद ।
पर सम्यग्ज्ञान न लाधो, दुर्लभ निज में मुनि साधो ॥
यह जीव, व्यवहाररत्नत्रय धारण करके नौवें ग्रैवेयक तक तो अनन्तबार पहुँचा, पर सम्यग्ज्ञान की प्राप्ति न कर पाने के कारण संसार में ही भटकता रहा। निश्चयरत्नत्रय धारण करनेवाले मुनिराज निज में उस सम्यग्ज्ञान की साधना करते हैं ।
धन- कन- कंचन राजसुख, सबहि सुलभ कर जान । दुर्लभ है संसार में, एक जथारथ ज्ञान ॥२ इस संसार में धन-धान्य, सोना-चाँदी और राजसुख आदि तो सबको सुलभ हैं; किन्तु यर्थाथज्ञान ही एकमात्र दुर्लभ है।
सब व्यवहार क्रिया को ज्ञान, भयो अनन्ती बार प्रधान । निपट कठिन अपनी पहिचान, ताको पावत हो कल्यान ॥ इस जीव को व्यावहारिक क्रियाओं का ज्ञान तो अनन्तबार हुआ है, पर एकमात्र अपनी पहिचान ही अत्यन्त कठिन है। यदि अपनी सच्ची पहिचान हो जावे तो कल्याण होते देर न लगे।"
उक्त छन्दों में कहीं मात्र अपनी पहिचान को दुर्लभ बताया गया है तो कहीं मात्र सम्यग्ज्ञान या यथार्थज्ञान को; पर गहराई में जाकर देखें तो आशय सर्वत्र एक ही है । सर्वत्र एक ही ध्वनि है कि पुण्यवानों को दुनिया में सभी संयोग सहज उपलब्ध हो जाते हैं, हमें भी समय-समय पर सभी अनुकूल-प्रतिकूल संयोग प्राप्त होते रहे हैं; पर एक यथार्थज्ञान, अपनी पहिचान आत्मोन्मुखी पुरुषार्थ के बिना सहज सुलभ नहीं है। अतः पुण्योदय से प्राप्त भोगों में न
१. पण्डित दौलतरामजी : छहढाला; पंचम ढाल, छन्द १३
२. कविवर भूधरदासजी कृत बारह भावना
३. कविवर बुधजनजी कृत बारह भावना