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मेरी भावना
. इसके प्रणयन में मैंने आचार्य कुन्दकुन्द और स्वामी कार्तिकेय से लेकर अद्यावधि उपलब्ध बारह भावना साहित्य का भरपूर उपयोग किया है। जिन ग्रन्थों के उद्धरण या उल्लेख यथास्थान इस कृति में हुए हैं, उनके अतिरिक्त भी बहुत-सा साहित्य एवं साहित्यकार ऐसे रह गये हैं, जिनका भरपूर उपयोग मेरे चित्त के परिमार्जन एवं इस ग्रन्थ के प्रणयन में हुआ है। उन सभी का मैं चिर-कृतज्ञ हूँ। __ इसमें मेरा कुछ भी नहीं है; जो भी है, वह सब आगम और परमागम में यत्र-तत्र उपलब्ध है; मैंने तो पूज्य गुरुदेवश्री से प्राप्त आध्यात्मिक दृष्टि से उसका गहरा अध्ययन कर, उसे इस रूप में मात्र व्यवस्थित ही कर दिया है। कर क्या दिया, सहज ही यह सब हो गया है। ___ यह परमागम का प्रसाद जो भी है, जैसा भी है; सभी आत्मार्थी बन्धुओं की सेवा में सादर समर्पित है, इस पावन भावना और विश्वास के साथ कि सभी आत्मार्थी इसका भरपूर उपयोग कर निज उपयोग को निज में ही लगा देंगे, निज में ही जम जायेंगे, निज में ही रम जायेंगे और सहजानन्द के धाम निज भगवान आत्मा की आराधना कर सहजानन्द को सहज ही उपलब्ध कर लेंगे।
इस कृति के अध्ययन से आत्मार्थी बन्धुओं को यदि आत्महित की थोड़ी भी प्रेरणा मिली तो मुझे आन्तरिक प्रसन्नता होगी, अन्यथा मुझे जो लाभ हुआ है, मेरा श्रम तो उतने से ही सार्थक हो गया है। ____ यदि कोई विशेषज्ञ बन्धु कृति के परिष्कार के लिए समुचित सुझाव देंगे तो हम उनका सच्चे हृदय से स्वागत करेंगे और अगले संस्करण में उनका यथासंभव उपयोग भी अवश्य करेंगे।
इस सम्पूर्ण कृति का मूल केन्द्र-बिन्दु एकमात्र - 'धुवधाम की आराधना आराधना का सार है'- ही है। अतः सभी आत्मार्थीजन ध्रुवधाम निज भगवान आत्मा की आराधना में ही रत होकर अनन्त अतीन्द्रिय आनन्द को प्राप्त करें - इस पावन भावना के साथ विराम लेता हूँ।
____ - डॉ. हुकमचन्द भारिल्ल