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________________ बारहभावना : एक अनुशीलन "लोकालोक विचारिकैं, सिद्धस्वरूप चितारि। राग-विरोध बिडारिकैं, आतमरूप संवारि॥ आतमरूप संवारि मोक्षपुर बसो सदा ही। आधि-व्याधि जर-मरन आदि दुख है न कदा ही। श्रीगुरु शिक्षा धारि टारि अभिमान कुशोका। मन थिर कारन यह विचारि निजरूप सुलोका॥ लोकालोक के स्वरूप का विचार कर, लोकाग्र में विराजमान सिद्ध के स्वरूप का स्मरण कर, राग-द्वेष को दूर कर आत्मा के स्वरूप को सँवारना ही वास्तविक धर्म है, मोक्ष का मार्ग है। इस मार्ग पर चलनेवाले उस मोक्षपुर में सदा ही निवास करते हैं, जहाँ न तो आधि (मानसिक क्लेश) है और न व्याधि (शारीरिक रोग) । वहाँ जन्म-मरण आदि के दुख भी कभी नहीं होते। अतः अभिमान और शोक छोड़कर श्रीगुरु की शिक्षा को धारण करो। मन की स्थिरता का एकमात्र उपाय निजरूप सुन्दर लोक में विचरना ही है अर्थात् आत्मा का अनुभव करना ही है ; आत्मा का ज्ञान, श्रद्धान और ध्यान ही है; आत्मा की रमणता ही है।'' इसप्रकार हम देखते हैं कि लोकभावना की विषय-वस्तु के विस्तार में जावें तो उसमें लगभग सम्पूर्ण लोकालोक ही समाहित हो जाता है; जो कुछ भी जिनागम में कहा गया है, वह सब कुछ आ जाता है। इसका तात्पर्य यह हुआ कि जिनागम में प्रतिपादित सम्पूर्ण विषय-वस्तु के सम्बन्ध में आत्मानुभवी संत और ज्ञानी श्रावक जो कुछ भी आत्मोन्मुखी चिन्तन करते हैं, वह सब लोकानुप्रेक्षा का ही चिन्तन है; पर यह आवश्यक है कि उस चिन्तन की दिशा भेदविज्ञानपरक और वैराग्यप्रेरक होना चाहिए। ज्ञेयरूप संयोगों, हेयरूप पुण्य-पापास्रवों एवं उपादेयरूप संवर-निर्जरा की चर्चा के उपरान्त लोकभावना में - समस्त लोक जिसके ज्ञानदर्पण में प्रतिबिंबित होता है, उस आत्मा का सम्पूर्ण लोक में क्या स्थान है और वह कौन है? - १. कार्तिकेयानुप्रेक्षा, पृष्ठ १२७
SR No.009445
Book TitleBarah Bhavana Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages190
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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