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________________ बारहभावना : एक अनुशीलन १४३ अद्भुत संधि बिठा दी गई है। इतनी अधिक विषय-वस्तु एक ही छन्द में समाहित कर देने के उपरान्त भी वैराग्यवर्धक भावना को ठेस न पहुँचकर अद्भुत बल मिला है; भावनात्मक चिन्तन का वेग, वैराग्यभावना का उद्वेग अपने पूरे प्रवाह पर कायम ही नहीं रहा, अपितु वृद्धिंगत रहा है। लोकभावना की मूल भावना पंडित जयचन्दजी छाबड़ा के शब्दों में अतिसंक्षेप में इसप्रकार है "लोकस्वरूप विचारि कैं, आतमरूप निहारि । परमारथ व्यवहार मुणि, मिथ्याभाव निवारि ॥" उक्त छन्द में प्रेरणा दी गई है कि हे आत्मन्! निश्चय व्यवहार को अच्छी तरह समझ कर मिथ्याभावों को दूर करो, षट्द्रव्यमयी लोक के स्वरूप को भलीभाँति विचार कर अपने को देखो, आत्मा का अनुभव करो। विशेष ध्यान देने योग्य बात यह है कि यहाँ षद्रव्यों को तो मात्र जानने की बात कही, पर आत्मा को निहारने का आदेश दिया है; क्योंकि परद्रव्य होने से षट्द्रव्य तो मात्र ज्ञान के ज्ञेय ही हैं, पर आत्मा निजद्रव्य होने से परम-उपादेय है, ध्येय भी है। - मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्ररूप मिथ्याभावों के निवारण करने का एकमात्र उपाय अपने आत्मा को निहारना ही है; क्योंकि आत्मा के निहारने - दर्शन करने, जानने, ध्यान करने का नाम ही सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र है। जगत को जानकर उससे दृष्टि हटाकर निज भगवान आत्मा में स्थिर हो जाना ही लोकभावना के चिन्तन का सुपरिणाम है । यही कारण है कि लोकभावना के चिन्तन का मूल केन्द्रबिन्दु षट्द्रव्यमयी लोक से भिन्न निज भगवान आत्मा की उपासना करने की प्रेरणा देना ही रहा है। इस दृष्टि से निम्नांकित छन्द द्रष्टव्य हैं "तेरो जनम हुवो नहीं जहाँ, ऐसो खेतर नाहीं कहाँ । याही जनम भूमि का रचो, चलो निकसि तो विधि तैं बचो ॥" १. कविवर बुधजन कृत बारह भावना
SR No.009445
Book TitleBarah Bhavana Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages190
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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